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________________ तीर्थंकर पार्श्वनाथ आकर दिये हुए अन्न को, अपने लिये तैयार किए हुए अन्न को और निमंत्रण को भी स्वीकार नहीं करता था । गर्भिणी व स्तनपान कराने वाली स्त्री से भिक्षा नहीं लेता था । यह समस्त आचार जैन साधुओं का है । इससे प्रतीत होता है कि गौतम बुद्ध पार्श्वनाथ- परम्परा के किसी श्रमण-संघ क्ष हुए और वहां से उन्होंने बहुत कुछ सद्ज्ञान प्राप्त किया । R देवसेनाचार्य (८वीं शती) ने भी गौतमबुद्ध के द्वारा प्रारम्भ में जैन दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख करते हुए कहा है- जैन श्रमण पिहिताश्रव ने सरयू नदी के तट पर पलाश नामक ग्राम में श्री पार्श्वनाथ के संघ में उन्हें दीक्षा दी और उनका नाम मुनि बुद्धकीर्ति रखा। कुछ समय बाद वे मत्स्य-मांस खाने लगे और रक्त वस्त्र पहनकर अपने नवीन धर्म का उपदेश करने लगे”। यह उल्लेख अपने आप में बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्व नहीं रखता, फिर भी तथा प्रकार के समुल्लेखों के साथ अपना एक स्थान अवश्य बना लेता है । पालि दीघनिकाय में मक्खलि गोशालक आदि जिन छह तीर्थंकरों के मतों का प्रतिपादन है, उनमें निग्गण्ठनातपुत्त के नाम से जिस चातुर्याम संवर अर्थात् सब्बवारिवारित्तो, सब्बवारियुतो, सब्बवारिधुतो और सब्बवारिफुटो की चर्चा है, वैसी किसी भी जैनग्रन्थों में नहीं मिलती । स्थानांग, भगवती उत्तराध्ययन आदि सूत्र ग्रन्थों में तो पार्श्व प्रभु के सर्व प्राणातिपात विरति, सर्वमृषावाद विरति, सर्व अदत्तादान विरति और सर्व बह्रिर्धादान विरति रूप चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन मिलता है । जब कि दिगम्बर परम्परा के अनुसार सभी तीर्थंकरों ने पांच महाव्रत आचार धर्म का प्रतिपादन समान रूप से किया है। यह भी ध्यातव्य है कि अर्धमागधी परम्परानुसार चातुर्याम का उपदेश पार्श्वनाथ ने दिया था, न कि ज्ञातपुत्र महावीर नें। किन्तु इस उल्लेख से यह अवश्य सिद्ध होता है कि भगवान् बुद्ध के सामने भी पार्श्वनाथ के चिन्तन का काफी व्यापक प्रभाव था और पार्श्वपत्यियों से भी उनका परिचय अच्छा था । कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि यज्ञ-यागादि प्रधान वेदों के बाद उपनिषदों में अध्यात्मिक चिन्तन की प्रधानता में तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चिन्तन का भी काफी प्रभाव पड़ा है। इस तरह वैदिक परम्परा के लिए
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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