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तीर्थंकर पार्श्वनाथ का लोकव्यापी व्यक्तित्व और चिन्तन
. भगवती सूत्र में तुंगीया नगरी में ठहरे उन पांच सौ पार्वापत्यिक स्थविरों का उल्लेख विशेष ध्यातव्य है जो पार्वापत्यिक श्रमणोपासकों को चातुर्याम धर्म का उपदेश देते हैं तथा श्रमणोपासाकों द्वारा पूछे गए संयम, तप तथा इनके फल आदि के विषय में प्रश्नों का समाधान करते हैं। इन प्रश्नोत्तरों का पूरा विवरण जब इन्द्रभूति गौतम को राज-गृह में उन श्रावकों द्वारा ज्ञात होता है, तब जाकर भगवान् महावीर को प्रश्नोत्तरों का पूरा विवरण सुनाते हुए पूछते हैं - भंते, क्या पार्खापत्यीय स्थविरों द्वारा किया गया समाधान सही है? क्या वे उन प्रश्नों के उत्तर देने में समर्थ हैं? क्या वे सम्यक् ज्ञानी हैं? क्या वे अभ्यासी और विशिष्ट ज्ञानी हैं? भगवान् महावीर स्पष्ट उत्तर देते हुए कहते हैं - अहं पिणं गोयना। एवमाइक्खामि भासामि, पण्णवेमि परुवेमि....। सच्चं णं एस मठे, नो चेत णं आयभाववत्तव्वयाए । अर्थात् हां गौतम। पापित्यीय स्थविरों द्वारा किया गया समाधान सही है। आगे गौतम के पूछने पर कि ऐसे श्रमणों की उपासना से क्या. लाभ? भगवान् कहते हैं - सत्य सुनने को मिलता है। आगे-आगे उत्तरों के अनुसार प्रश्न भी निरन्तर किये गये। ___इन प्रसंगों को देखने से यह स्पष्ट होता है कि तीर्थंकर महावीर के सामते पार्श्व के धर्म, ज्ञान, आचार और तपश्चरण आदि की समृद्ध परम्परा रही है और भगवान् महावीर उसके प्रशंसक थे।
पालि साहित्य में निर्ग्रन्थों के “वप्प शाक्य" नामक श्रावक का उल्लेख मिलता है, जो कि बुद्ध के चूल पिता (पितृव्य) थे इससे यह स्पष्ट है कि भगवान् बुद्ध का पितृत्व कुल पापित्यीय था। कुछ उल्लेखों से यह भी सिद्ध होता है कि बुद्ध आरम्भ में पार्श्व की निर्ग्रन्थ परम्परा में दीक्षित हुये थे, किन्तु बाद में उन्होंने अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाया। . __ भगवान बुद्ध के एक जीवन-प्रसंग से यह पता चलता है कि वे अपनी साधनावस्था में पार्श्व-परम्परा में सम्बद्ध अवश्य रहे हैं। अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्र से वे कहते हैं - “सारिपुत्र, बोधि-प्राप्ति से पूर्व मैं दाढ़ी, मूंछों का लुंचन करता था। मैं खड़ा रहकर तपस्या करता था। उकडू बैठ कर तपस्या करता था। मैं नंगा रहता था। लौकिक आचारों का पालन नहीं करता था। हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था। ..... बैठे हुए स्थान पर