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तीर्थकर पार्श्वनाथ हमारे देश के हजारों नये और प्राचीन जैनमंदिरों में सर्वाधिक पार्श्वनाथ की मूर्तियों की उपलब्धता भी उनके प्रति गहरा आकर्षण, गहन आस्था और व्यापक प्रभाव का ही परिणाम है।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ के बाद तथा तीर्थंकर महावीर के समय तक पार्श्वनाथ के अनुयायियों की परम्परा अत्यधिक जीवंत और प्रभावक अवस्था में थी। अर्धमागधी आगमों में “पासावच्चिज्ज" अर्थात् पार्श्वपत्यीय "पासत्थ” अर्थात् पार्श्वनाथ के रूप उल्लिखित शब्द पार्श्वनाथ के अनुयायियों के लिए प्रयुक्त किया गया मिलता है। “पार्खापत्यीय” शब्द का अर्थ है पार्श्व की परम्परा अर्थात् उनकी परम्परा के अनुयायी श्रमण और श्रमणोपासक।
अर्धमागधी अंग आगम साहित्य में पंचम अंग आगम भगवती सूत्र जिसे व्याख्या-प्रज्ञाप्ति भी कहा जाता है, में पार्श्वपत्यीय अनगार और गृहस्थ दोनों के विस्तृत विवरण प्राप्त होते हैं। सावधानी पूर्वक इनके विश्लेषण से प्रतीत होता है कि भगवान् महावीर के युग में पार्श्व का दूर-दूर तक व्यापक प्रभाव था तथा बड़ी संख्या में पापित्यीय श्रमण एवं उपासक विद्यमान थे। मध्य एवं पूर्वी देशों के व्रात्य क्षत्रिय उनके अनुयायी थे। गंगा का उत्तर एवं दक्षिण भाग तथा अनेक नागवंशी राजतंत्र एवं गणतंत्र उनके अनुयायी थे। उत्तराध्ययन सूत्र के तेईसवें अध्याय का “केशी-गौतम" संवाद तो बहुत प्रसिद्ध है ही। श्रावस्ती के ये श्रमण केशीकुमार भी पार्श्व की ही परम्परा के श्रमण थे। सम्पूर्ण राजगह भी पार्श्व का उपासक था। तीर्थंकर महावीर के माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धी पापित्य परम्परा के श्रमणोपासक थे। जैसा कि कहा भी है -
“समणस्स णं भगवओ महावीस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा समणोवासगा वावि होन्था (आचारांग २, चूलिका ३, सूत्र ४०)। भगवान् महावीर स्वयं कुछ प्रसंगों में पापित्यीयों के ज्ञान और प्रश्नोत्तरों की प्रशंसा करते हैं। एक अन्य प्रसंग में वे पार्श्व प्रभु को अरहंत, पुरिसादाणीय (पुरुषादानीय - पुरुष श्रेष्ठ या लोकनायक) जैसे सम्मानपूर्ण विशेषणों से सम्बोधित करते