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________________ ___ ७९ तीर्थंकर पार्श्वनाथ का लोकव्यापी व्यक्तित्व और चिन्तन पार्श्वनाथ और उनके चिन्तन की गहरी छाप है। सम्पूर्ण सराक जाति तथा अनेक जैनेतर अपने कुलदेव तथा इष्टदेव के रूप में आज तक इन्हीं की मुख्यत: पूजा भक्ति करती है। ईसापूर्ण दूसरी-तीसरी शती के जैन धर्मानुयायी सुप्रसिद्ध कलिंग नरेश महाराजा खारवेल भी इन्हीं के प्रमुख अनुयायी थे। अंग, बंग, कलिंग, कुरू, कौशल, काशी, अवन्ती, पुण्ड, मालव पांचाल, मगध, विदर्भ, भद्र, दशार्ण, सौराष्ट्र, कर्नाटक, कोंकण, मेवाड़, लाट, काश्मीर, कच्छ, वत्स, पल्लव और आमीर आदि तत्कालीन अनेक क्षेत्रों और देशों का उल्लेख आगमों में मिलता है, जिनमें पार्श्व प्रभु ने ससंघ विहार करके जन-जन के हितकारी धर्मोपदेश देकर जागृति पैदा की। इस प्रकार तीर्थकर पार्श्वनाथ तथा उनके लोकव्यापी चिन्तन ने लम्बे समय तक धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र को प्रभावित किया है। उनका धर्म व्यवहार की दृष्टि से सहज था, जिसमें जीवन शैली का प्रतिपादन था। धार्मिक क्षेत्रों में उस समय पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा आदि के लिए हिंसामूलक यज्ञ तथा अज्ञानमूलक तम का काफी प्रभाव था। किन्तु इन्होंने पूर्वोक्त क्षेत्रों में विहार करके अहिंसा का जो समर्थ प्रचार किया, उसका समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा और अनेक आर्य तथा अनार्य जातियाँ उनके धर्म में दीक्षित हो गई। राजकुमार अवस्था में कमठ द्वारा काशी के गंगाघाट पर पंचाग्नि तप तथा यज्ञाग्नि की लकड़ी : में जलते नाग-नागनी का णमोकार मंत्र द्वारा उद्धार कार्य की प्रसिद्ध घंटना यह सब उनके द्वारा धार्मिक क्षेत्रो में हिंसा और अज्ञान विरोध और अहिंसा तथा विवेक की स्थापना का प्रतीक है। :.'. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास (भाग १ पृ. ३५९) के अनुसार नाग तथा द्रविड़ जातियों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मान्यता असंदिग्ध थी। तक्षशिला, उद्यानपुरी, अहिच्छत्र, मथुरा, पद्मावती, कान्तिपुरी, नागपुर आदि इस जाति के प्रसिद्ध केन्द्र थे। भगवान् पार्श्वनाथ नाग जाति के इन केन्द्रों में कई बार पधारे और इनके चिन्तन से प्रभावित हो सभी इनके अनुयायी बन गये। इस दिशा में गहन अध्ययन और अनुसंधान से आश्चर्यकारी नये तथ्य सामने आ सकते हैं जो तीर्थंकर पार्श्वनाथ के लोकव्यापी स्वरूप को और अधिक स्पष्ट रूप में उजागर कर सकते हैं।
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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