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पार्श्व परम्परा के उत्तरवर्ती साधु और उनका स्वरूप
- डॉ. रमेशचन्द्र जैन* पासत्थ शब्द प्राचीन साहित्य में अनेक स्थानों पर आया हैं। इसकी अनेक प्रकार की व्याख्यायें की गयी हैं। भगवती आराधना में मासत्थ, अवसन्न, संसक्त, कुशील और मृगचरित्र के भेद से भ्रष्टचारित्र मुनि के पाँच भेद किए.गए हैं। इनसे सदैव ही मनुष्य को दूर रहना चाहिए, क्योंकि इनके संसर्ग से वह मनुष्य भी उनके समान ही पार्श्वस्थ आदि रूप हो जाता है।
सुखशील होने के कारण जो बिना कारण अयोग्य का सेवन करता है, वह पार्श्वस्थ (पासत्थ) है। अर्थात् अतिचार रहित संयम मार्ग का स्वरूप जानते हुए भी उसमें प्रवृत्ति नहीं करता, किन्तु संयम मार्ग के पास ही वह रहता है। यद्यपि वह एकान्त से असंयमी नहीं है, परन्तु निरतिचार संयम का पालन नहीं करता - इसलिए उसको पार्श्वस्थ कहते हैं - ___ 'पत्थानं पश्यन्नपि तत्समीपेऽन्येत कश्चिद गच्छति यथासौमार्ग पार्श्वस्थ: एवं निरतिचार संयममार्ग जानन्नपि न तत्र वत्तत, किन्तु संयम मार्ग पार्वे तिष्ठति नैकान्तेनीसंयत:, न च निरतिचार संयम: स्नेऽभिधीयते पार्श्वस्थ इति।'
वह शय्याधर पिण्ड - भोजन को नित्य करता है। भोजन करने के पहले और भोजन करने के पश्चात् दाता की स्तुति करता है।
उपर्युक्त शय्याधर शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। जो वसति बनाता है, जो टूटी हुई वसति की मरम्मत करता है तथा तीसरा वह जो व्यवस्थापक होता है अर्थात् वसति को देता है। उनका पिण्ड (भोजन), उपकरण (प्रतिलेखन) आदि शय्याधर पिण्ड कहलाता है। उन भोजनादि का
* बिजनौर, उ.प्र.