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पार्श्व परम्परा के उत्तरवर्ती साधु और उनका स्वरूप त्याग तीसरा स्थिति कल्प है। सूत्रकृतांग में उसे सागरिय पिण्ड भी कहा हैं । कल्पसूत्र टीका में कहा है कि शय्यातर के यहाँ से आहार आदि ग्रहण करना और उसका उपयोग करना साधु-साध्वियों को नहीं कल्पता। निशीथभाष्य में शय्याधर से तात्पर्य श्रमण को शय्या आदि देकर संसार समुद्र को तैरने वाला गृहस्थ बतलाया है। इसे अशन, पान, खाद्य, स्वाद्यादि आहार. तथा अन्य वस्तुओं को अकल्पनीय कहा है।
पार्श्वस्थ उत्पादन और एषणा दोष से दूषित भोजन करता है, नित्य एक ही वसतिका में रहता है, एक ही संस्तर पर शयन करता है, एक ही क्षेत्र में निवास करता है, गृहस्थों के घर के अन्दर बैठता है, गृहस्थों के उपकरणों का उपयोग करता है। प्रतिलेखना बिना किए ही वस्तु को गृहण करता है या धृष्टता पूर्वक प्रतिलेखना करता है, सुई, कैंची, नहिनी, क्षुरा आदि वस्तु को पास में रखता है, सीना, धोना, रंगनी आदि कार्यों में लगा रहता है। क्षार चूर्ण, सुरमा, नमक, घी आदि पदार्थ कारण न होने पर भी पास में रखता है। उपकरण बकुश और देहबकुश को भी पार्श्वस्थ मुनि कहा
. वस्तुत: कुछ साधु इन्द्रिय रूपी चोरों और कषायरूपी हिंसक जीवों के द्वारा पकड़े जाकर साधु सघ के मार्ग को छोड़कर साधुओं के पार्श्ववर्ती हो जाते हैं। साधु संघ के पार्श्ववर्ती होने से उन्हें पासत्थ या पार्श्वस्थ कहते हैं। साधु समूह के मार्ग को छोड़कर पार्श्वस्थ मुनिपने को प्राप्त हुए वे ऋद्धिगौरव और सातगौरव से भरे गहन वन में पड़कर तीव्र दु:ख पाते हैं। जैसे विषैले काँटों से बिंधे हुये मनुष्य अटवी में अकेले दुःख पाते हैं, वैसे ही मिथ्योत्व, माया और निदान रूपी काँटों से बिंधे हुए वे पार्श्वस्थ मुनि दु:ख पाते हैं।
___ वह पार्श्वस्थ मनि साधु संघ का मार्ग त्यागकर ऐसे मुनि के पास जाता है, जो चारित्र से भ्रष्ट होकर पार्श्वस्थ मुनियों का आचरण करता है ।
इन्द्रिय, कषाय और विषयों के कारण राग द्वेष रूप परिणामों और क्रोधादि परिणामों के तीव्र होने से वह चारित्र को तृण के समान मानता है;