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मानो शिखा के बहाने से योगपट्ट को धारण करने वाले योगी के समान समुद्र जन्मजात जड़ता की शान्ति के लिए मानो परमब्रह्म का ध्यान करता है । (११०)
सुभगकरणीयद्वा, हारि हारलताभिमाम् । श्यामोऽपि सुभगत्वेच्छुर्दधौ वार्द्धिः शिखामिषात् ॥१११॥
अथवा तो कृष्णवर्णी भी सुभगता के इच्छा वाला यह समुद्र सौभाग्य को करने वाला मानो सुन्दर हारलता न हो इस तरह इस शिखा को धारण कर रहा है । (१११)
जम्बूद्वीपोपाश्रयस्थान्, पुनीनुत निनंसिषुः । कृतोत्तरासङ्गसंङ्गः शिखावलयकै तवात् ॥११२॥
अथवा तो मध्यशिखा के वलय के बहाने से उत्तरासंग को धारण करने वाला यह समुद्र जम्बूद्वीप के आश्रय में रहे मुनियों को वंदन नमस्कार करने की इच्छा करता है । (११२)
पूर्णकुक्षि भृशं रत्नैरून्मदिष्णुतथाऽथवा । पट्ट बद्धोदर इव, विद्यादृप्तकुवादिवत् ॥११३॥
बहुत रत्नो से मानों वह समुद्र रूपी कुक्षी पूर्ण भर गई हो ऐसा यह लवण समुद्र लगता है । अथवा उन्मादी बनने से मानो उदय-मध्यभाग में पट्ट बन्धन किया विद्या से गर्विष्ट बना, कुवादी के समान यह समुद्र लगता है । (११३) . भाति भूयोऽब्धिभूपालवृतो दैवतसेवितः ।
शिखाभिषाप्त मुकुटो दधद्वा वार्द्धि चक्रिताम् ॥११४॥ त्रिभि विशेषकं ।। - अथवा तो बहुत समुद्र रूपी राजाओं से घिरे हुए देवताओं से सेवित और शिखारूपी मुकुट को धारण करने वाले ये समुद्र, समुद्र के चक्रवर्तीपने को धारण करते शोभायमान होते हैं । (११४)
पाताल कुम्भ संर्मूच्छ द्वायुविक्षोभ योगतः । उपर्यस्याः शिखायाश्च देशोनमर्द्धयोजनम् ॥११५॥ द्वौ वारौ प्रत्यहोरात्रमुदकं वर्द्धतेतराम् । तत्प्रशान्तौ शाम्यति च, भवेद्वेलेयमूर्द्धगा ॥११६॥