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________________ (२२) लोकप्रथानुसारेण त्वेवम वोचं : यथा यथेन्दोर्निजन्दनस्य, कालक्रम प्राप्तकलाकलस्य । आश्लिष्यतेऽष्धिर्मृदुभिः कराग्रैस्तथा तथोर्द्धेलमुपैति वृद्धिम ॥१०५॥ लोगों की प्रथा में तो इस तरह कहा जाता है कि - जैसे-जैसे अपना पुत्र चन्द्र कलाक्रम से कला को प्राप्त करते अपनी कोमल किरणाग्र द्वारा समुद्र का आलिंगन करता है वैसे-वैसे समुद्र वृद्धि को प्राप्त करता है । (१०५) दर्शे त्वपश्यन्नति दर्शनीयं, निजाङ्गजं शीतकरं पयोधिः विवृद्ध वेलावलयच्छलेन, दुःखाग्नि तप्तो भुवि लोलुडीति ॥१०६ ॥ अमावस्या के दिन में अति दर्शनीय अपने पुत्र चन्द्र को न देख कर समुद्र बढ़ते जल के बहाने से दुःख की अग्नि से पीड़ित हुआ पृथ्वी पर लोटता (तड़पता ) है । (१०६) योजनानामुभयतो विमुच्य लवणाम्बुधौ । सहस्त्रान् पञ्चनवतिं मध्य देशे शिखैधते ॥ १०७ ॥ " योजनानां सहस्त्राणि, दशेयं पृथुलाऽभितः । चक्रास्ति वलयाकारा, जलभित्तिरिव स्थिरा ॥ १०८ ॥ लवण समुद्र में दोनों तरफ से पंचानवे हजार (६५०००) योजन छोड़कर मध्यभाग की शिखा शोभायमान हो रही है, वह शिखा दस हजार योजन चारों तरफ से चौड़ी है, इसलिए मानो वलयाकार स्थित रही पानी की दीवार के समान वह शोभायमान है । (१०७-१०८) सहस्त्राणि षोडशोच्चा, समभूमि समोदकात् । योजनानां सहस्रं च तत्रोद्वेधेन वारिधिः ॥ १०६ ॥ यहां मध्यभाग के दस हजार योजन में समभूमि विभाग से पानी सोलह हजार योजन ऊंचा होता है और वहां एक हजार योजन की ऊंचाई वाला समुद्र है । (१०६) शिखाभिषाद्दधद्योग पट्टं योगीव वारिधिः । ध्यायतीव परब्रह्मा, जन्मजाडयोपशान्तये ॥११०॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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