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जगत्स्वाभाव्यत एव, शान्तेषु तेषु वायुषु । • पुनः पाताल कुम्भानां जलं स्व स्थानमा श्रयेत् ॥१०॥
जग के स्वभाव से वह महावायु शांत होने के बाद पाताल कलशों का पानी अपने स्थान में फिर वापस जाता है । (१०२) .
जलेषु, तेषु स्व स्थानं, प्राप्तेषु सुस्थितोदकः । स्वास्थ्यमापद्यतेऽम्भोधिर्वातकीव कृतौषधः ॥१०१॥
जिस तरह वायु के रोग वाला मनुष्य औषध से स्वस्थ होता है वैसे वह सारा जल अपने स्थान में वापिस आता है तब समुद्र का पानी स्थिर हो जाता है । (१०१)
मूर्च्छन्ति द्विरहोरात्रे, वाताः स्वस्थी भवन्ति च ।
ततो द्विः प्रत्यहोरात्रं, वर्द्धते हीयतेऽम्बुधिः ॥१०॥ __ यह महावायु एक अहोरात्रि में दो बार उत्पन्न होता है और दो बार शान्त होता है। इस कारण से समुद्र प्रतिदिन दो बार बढ़ता है और दो बार घटता है अर्थात् दिन में दो बार ज्वार भाटा आता है । (१०२) .: तथाह जीवाभिगम -'लवणे णं भंते ! समुद्दे तीसाए मुहूत्तांण कइखुत्तो अरेग बड्ढई वा हायइ वा ? गोयम ! दुक्खुत्तो अरेंग वड्ढइ वा हायइ वा॥' - यह बात श्री जीवाभिगम सूत्र में भी कहा है कि :- हे भगवन्त ! लवण समुद्र के अन्दर तीस मुहूर्त में कितने बार जल बढ़ता है और घटता है ? तब भगवन्त ने कहा हे गौतम ! जल दो बार बढ़ता है और दो बार घटता है । .... राकादर्शादितिथिषु चातिरेकेण तेऽनिलाः ।
क्षोभं प्रयान्ति मूर्च्छन्ति, तथा जगत्स्वभावतः ॥१०३॥ ततश्च पूर्णिमाऽमादि तिथिष्वतितमामयम् ।
वेलया वर्द्धते वार्द्धिदेशम्यादिषु नो तथा ॥१०४॥ ... वह महावायु तथा उस प्रकार के जगत् स्वभाव से पूनम और अमावस्या आदि दिनों में अधिक प्रमाण में क्षोभायमान होता है और शान्त होता है इससे पूनम और अमावस्या के दिन में इस समुद्र का पानी अत्यन्त बढ़ता है । इसी तरह दशमी आदि अन्य तिथियों में उतने समय बढ़ता नहीं है । (१०३-१०४)