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________________ (२०) शत योजन विस्तीर्णा, एते मूले मुखेऽपि च । मध्ये सहस्रं विस्तीर्णाः, सहस्र मोदरे स्थिताः ॥६३॥ दशयोजनबाहल्यवज़ कुडयमनोरमाः । वायुवायूदकाम्भोभिः, पूर्णत्र्यंशत्रयाः क्रमात् ॥६४॥ सयोजन तृतीयांशं, त्रयस्त्रिशं शतत्रयम् । तृतीयो भाग एकैक, एषां निष्टङ्कितो बुधैः ॥६५॥ ये लघु पाताल कलश मूल और मुख में सौ योजन विस्तार वाले है, मध्य में एक हजार योजन विस्तार वाले हैं और एक हजार योजन पृथ्वी में गहरे अवगाढ़ कर प्रविष्ट रहे हैं तथा दस योजन की मोटी वज्र प्रतर से मनोहर हैं । इन लघु.कलशों में भी तीन विभाग है वह क्रमशः वायु, वायु मिश्रित जल और जल से पूर्ण है और वह एक-एक भाग ३३३- १/३ योजन प्रमाण पंडित पुरुषों ने कहा है । (६३-६५) लघवोऽपि महान्तोऽपि, यावन्मग्रा भुवोन्तरे । उत्तुङ्गास्तावदेव सयुभूमीतलसमानना; ॥६६॥ बड़े और छोटे कलश जितने भूमि में मग्न है उतने ही ऊंचे हैं और इनका मुख भूमितल की समश्रेणि में रहा है । (६६) एषां पाताल कुम्भानां, लघीयसां महीयसाम् । मध्यमेऽधस्तने चैव, त्र्यंशे जगत्स्वभावतः ॥६७॥ समकालं महावाताः समूर्च्छन्ति सहस्रशः । । क्षुभितैस्तेश्चोपरिस्थं, बहिर्निस्सार्यते जलम् ॥१८॥ तेन निस्सार्यमाणेन, जलेन क्षुभितोऽम्बुधिः । . . वेलया व्याकुलात्मा स्यादुद्वमान्निव वातकी ॥६६॥ इन छोटे बड़े दोनों प्रकार के सभी पाताल कलशों के मध्यम और अन्तिम तृतीयांश में जगत स्वभाव से एक साथ में हजारों महावायु उत्पन्न होते हैं और खलबली होते हुए उस महावायु से कलशों के ऊपर के तृतीयांश का पानी बाहर निकलता है, वह बाहर निकलते पानी से व्याकुल हुआ समुद्र वायु रोग वाले जैसे उलटी करता है वैसे ज्वार से पानी का उफान बाहर निकालता है । (६७-६६)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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