SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१८) चार महापाताल कलशों के चारों के अन्तर में लघु पाताल कलशों की नौ-नौ श्रेणि है । उसमें चार अन्तर की प्रथम श्रेणी में दो सौ पंद्रह लघु (छोटे) पाताल कलश रहे हैं जो इस तरह कहे अनुसार लघु पाताल कलशों द्वारा महाकलशों का अन्तर पूर्ण होता है । (८३-८४) एकैकस्योदरव्यासः, सहस्त्र योजनात्मकः । ततः शतद्वयं पञ्चदश सहस्त्र ताडितम् ॥५॥ सहस्रः पञ्चदशभिर्युक्तं लक्षद्वयं भवेत् । लघु कुम्भैरियद्रुद्धमेकै कस्यान्तरस्य वै ॥८६॥ . एक-एक लघु पाताल कलश का विस्तार एक हजार योजन का है । अतः दो सौ पंद्रह को एक हजार से गुणा करने से दो लाख और पंद्रह हजार होता है । इतनी लघु कलशें द्वारा स्थान रोका हुआ है । ऐसा जानना । (८५-८६.) शेषं सहस्त्राश्चत्वारो, द्वि शती पच्चषष्टि युक् । रूद्धं कथंचित्तत्प्रौढकुम्भान्तरमिथोऽन्तरैः ॥८७॥ महापाताल कलश के अन्तर के योजन में से लघु पाताल कलशों के विस्तार के योजन को निकालते चार हजार दो सौ पैंसठ (४२६५) योजन शेष रहता है वह शेष आकाश क्षेत्र लघु पाताल कलशों का परस्पर अन्तरों से पूर्ण होता है उसका गणित इस प्रकार है :- . . २१६२६५ योजन महापाताल कलशों का अन्तर है . २१५००० योजन लघु पाताल कलशों का व्यास निकाल देने से ४२६५ आकाश क्षेत्र शेष रहता है । (८७) . परिघे वर्द्धमानत्वापको पङ्कौ यथात्तरमम् । एकैक कलशस्यापि, वृद्धिर्वाच्या वचस्विभिः ॥८॥ .. समुद्र की परिधि बढ़ने से प्रत्येक पंक्ति में आगे से आगे एक-एक कलश की वृद्धि विद्वानों ने कही है । (८८) ततः पङ्कौ द्वितीयस्यां, द्वे शते षोडशोत्तरे । . पंक्तौ नवम्यामेवं स्युस्त्रयोविंश शतद्वयम् ॥८६॥ .
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy