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________________ (१०) विवक्षित्वा मानमेतन्निरूपितं धनात्मकम् । एतद्विवक्षाहेतुस्तु गम्यः केवलशालिनाम् ॥४६॥ समुद्र के शिखर के ऊपर से और दोनों वेदिका तक बराबर सीधी रस्सी रखी जाय और बीच में जो आकाश क्षेत्र बिना पानी का है, उसे भी पानी वाला समझना चाहिए । यह विवक्षा करने से यह धनात्मकमान कहा है । परन्तु इस विवक्षा का हेतु श्री केवली भगवंत ही जानते हैं । (४७ से ४६) . . . तथाहर्दष्षमाध्वानतनिर्मग्रागमदीपकाः । विशेषणवती ग्रन्थे, जिनभद्र गणीश्वराः ॥५०॥ तथा दुषम काल के अंधकार में डूबे हुए को आगम के दीपक समान श्री जिनभद्र गणीश्वर ने विशेषणवती नामक ग्रन्थ में इस तरह कहा है । (५०) "एयं उभय वेइ यंताओ सोलसहस्सुस्सेहस्स कन्नगईएजं लवण समुद्दाभव्वं जलसुनंपि खित्तं तरस गणियं, जहा मंदरस्स पव्वयस्स एक्कारस भागहाणी कण्ण गइए आगासस्सवि तदाभव्वंतिकाऊण भणिया तहा लवण समुद्दस्सवि" इन दोनों वेदिका के पास से सोलह हजार योजन जल की ऊंचाई तक कर्णगति से जल शून्य क्षेत्र को भी लवण. समुद्र का ही क्षेत्र समझना । जिस तरह मेरूपर्वत के ग्यारह विभाग की हानि में कर्णगति से आकाश क्षेत्र को भी मेरूपर्वत रूप में गिना जाता है, वैसे ही लवण समुद्र का भी समझना चाहिए । मुखैश्चतुर्मुख इव द्वारैश्चतुर्भिरेष च । .. जगत्याऽऽलिङ्गितो भाति, स्थितैर्दिक्षुचतसृषु ॥५१॥ चारों दिशा में रहे चार द्वार रूप मुख से चार मुख वाला यह लवण समुद्र जगती द्वारा आलिंगित बना शोभायमान हो रहा है (५१) पूर्वस्यां विजय द्वारं, शीतोदायाः किलोपरि । घातकी खण्ड पूर्वार्द्धाद्धिंशत्या लवणाम्बुधौ ॥५२॥ द्वाराणि वैजयन्तादीन्यप्येवं दक्षिणादिषु । सन्त्यस्य दिक्षु तिसृषु, जम्बूद्वीपइव क्रमात् ॥५३॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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