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________________ (६) सतरह हजार (१७०००) योजन स्वरूप मध्यम भाग की जल की ऊंचाई को प्रतर द्वारा गुणा करने से धन आता है । (४१) कोटयः षोडश कोटीनां, लक्षास्त्रिनवतिस्तथा । एकोन चत्वारिंशच्च, सहस्राणि ततः परम् ॥४२॥ सपञ्चदसकोटीनि, नवकोटीशतान्यथ । परिपूर्णा योजनानां, लक्षाः पञ्चाशदेव च ॥४३॥ एतावद् धनगणितं कथितं लवणार्णवे । विलसत्के वलालोक विलोकितजगत्रयैः ॥४४॥ विलास प्राप्त किये केलव ज्ञान रूप सूर्य द्वारा तीन जगत को देखने वाले श्री जिनेश्वर भगवन्त ने लवण समुद्र का धन गणित सोलह करोड़ तीन लाख उन्तालीस हजार नौ सौ पंद्रह करोड़ और पवास लाख (१६,६३३३६ १५,५०,००,०००) योजन कहा है वह इस प्रकार है । उदाहरण तौर पर ६६६११७ १५००० प्रतर के माप के जल की ऊंचाई .साथ में गुणा करने से धन गणित आता है । वह १७००० योजन जल की ऊंचाई है । ६६६११७१५०००x१७०००/१६, ६३३६, ६१५५०००००० योजन का धन गणित होता है । (४२ से ४४) नन्वेतावद् धनमिह, कथमुत्पद्यते? यतः । न सर्वत्र सप्तदश, सहस्राणि जलोच्छ्रयः ॥४५॥ किन्तु मध्यभाग एव, सहस्रदशकावधि । अत्रोच्यते सत्यमेतत्तत्वमाकर्ण्यतां परम् ॥४६॥ युग्मं ।। । यहां प्रश्न करते हैं कि - इतना घन किस तरह प्राप्त हो सकता है क्योंकि . प्रत्येक स्थान पर जल की ऊंचाई सत्रह हजार योजन नहीं है - किन्तु दस हजार योजन रूप मध्य भाग में सत्रह हजार की ऊंचाई है । इसका उत्तर देते हैं - तुम्हारी बात सत्य है परनतु वास्तविकता सुनो - (४५-४६) अब्धः शिखाया उपरि, द्वयोश्च वेदिकान्तयोः । दत्तायां दवरिकायामृज्च्यामेकान्ततः किल ॥४७॥ अनतराले यदाकाशं, स्थितमम्बुधि वर्जितम् । तत्सर्वमेतदाभाव्यमित्यम्बुधितयाऽखिलम् ॥४८॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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