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________________ (८) लवणाम्बुधि विस्तारात्सहस्राणि दश स्फुटम् । शोधयित्वा शेषमर्नीकृतं दशसहस्रयुकं ॥३६॥ जातं पञ्चं सहस्राढय, लक्षमेकमिदं पुनः । अस्मिन् प्रकरणे कोटिरित्येवं परिभाषितम् ॥३७॥ लवण समुद्र का विस्तार दो लाख योजन में से दस हजार योजन निकाल देने पर एक लाख नब्बे हजार (१६००००) योजन रहता है । उसका आधा करने से ६५००० रहता है । उसमें दस हजार मिलाने से एक लाख पांच हजार होते हैं । उसे इस प्रकरण में लवण समुद्र की कोटी नाम की परिभाषा दी है । अर्थात् इसे कोटि कहा जाता है । (३६-३७) अथैववंरूपया कोट्या, गुणयेल्लवणाम्बुधेः । . मध्यमं परिधेर्मान, स्यादेव प्रतरात्मकम् ॥३८॥ अब इस प्रकार की कोटि द्वारा लवण समुद्र के मध्य भाग की परिधि से माप-मान निकालने में आए तो नीचे के अनुसार प्रतरात्मक मान आता है । (३८) तच्येदं - सहस्राणि नव कोटिनां, तथा नव शतान्यपि । एक षष्टिः कोट्यश्च लक्षाः सप्तदशोपरि ॥३६॥ सहस्राणि पञ्चदश योजनानामिदं .जिनैः । प्रतरं लवणे प्रोक्तं, सर्वं क्षेत्रफलात्मकम् ॥४०॥ नौ हजार नौ सौ इकसठ करोड़ सत्तर लाख पंद्रह हजार (६६,६११७१५०००) योजन का लवण समुद्र का सम्पूर्ण क्षेत्रफल स्वरूप प्रतरात्मक गणित श्री जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है । वह इस प्रकार है - लवण समुद्र की मध्यम परिधि ६४८६८३ को करोड़ करने से ६४८६८३४१०५००० = ६६६११७१५००० योजन का लवण समुद्र प्रतरात्मक गणित होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि लवण समुद्र के एक-एक योजन टुकड़े को एक-एक प्रतर कहते हैं। (३६-४०) मध्य भागे सप्तदश, सहस्राणि यदीरितम् । जलमानं तदनेन, प्रतरेणाहतं धनम् ॥४१॥ .
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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