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(५६४)
योजनं चेतदुत्सेधाङगुलमानेन निश्चितम् । सिद्धावगाहना यस्मादुत्सेधाङ्गुलसंमिता ॥६६४॥
यह योजन माप उत्सेधांगुल से समझना चाहिए क्योंकि सिद्ध की अवगाहना उत्त्सेधांगुल से कहा गया है । (६६४)
तथोक्तं - "यच्चेषत्प्रारभारायाः पृथिव्या लोकान्तस्य चान्तरं तदुत्त्सेधाङ्गुल निष्पन्न मित्यनुमीयते, यतस्तस्योपरितन क्रोशस्य षड्भागे सिद्धावगाहना धनुस्त्रिभागयुक्तत्रयस्त्रिंशदधिकशतत्रयमानाऽभिहिता, सा चोच्छ्रया श्रयणत एव युज्यत इति भगवती वृत्तौ ।" ...
श्री भगवती सूत्र की वृत्ति में कहा है कि - "सिद्ध शिला पृथ्वी से लोकान्त का अन्तर उत्सेधांगुल से होना चाहिए । इस तरह अनुमान होता है क्योंकि उसके ऊपर के कोस के छठे विभाग में सिद्ध की अवगाह के ३३३ ३ के धनुष्य कही है वह ऊँचाई के आधार पर ही उत्सेध के आधार से ही घट सकता है अन्यथा नहीं घटता।"
तद्योजनोपरितनकोशषष्ठांशगोचरम् । धनुषां सतृतीयांश, त्रयस्त्रिशंशतत्रयम् ॥६६५॥ अभिव्याप्य स्थिता: सिद्धा,अवेदावेदानोज्झिताः। चिदानन्दमयाः कर्मधर्माभावेन 'निर्वृताः ॥६६६॥
उस योजन के अन्तिम कोस के छठे अंश में ३३३ धनुष्य व्याप्त है। वेद रहित, वेदना रहित, चिदानंदमय, कर्म रूपी गरमी के अभाव से सदा शान्त सिद्धात्मा रहते हैं । (६६५-६६६)
शेष सिद्ध स्वरूपं तु, द्रव्य लोके निरूपितम् । तत एव ततो सेयं, ज्ञप्तिस्त्रीसंगमोत्सुकैः ॥६६७॥
शेष रहा श्री सिद्ध भगवन्तो का स्वरूप द्रव्य लोक में कहा है, इससे ज्ञान रूपी स्त्री के संगम करने के इच्छुक जीवो ने वहां से जान लेना चाहिए । (६६७)
देशादमुष्मात्परतोऽस्त्यलोकः, स्वकुक्षिकोणाकलितत्रिलोकः । मुक्तैकमुक्ता कणकुम्भगर्भोपमः समन्तादपि रिक्त एव ॥६६८॥ उपजातिः॥