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________________ (५६५) पमुक्त। इस प्रदेश से आगे आलोक है कि जिसने अपने मध्य विभाग के एक कोने में तीन लोक का समावेश कर दिया है और विशाल कुंभ के अन्दर एक मोती के दाना रखने में आता है और शेष चारों तरफ खाली रहे, इस तरह यह आलोक दिखता है । (६६८) . धर्मोधर्मोद्भिन्नजीवान्यगत्यागत्या, यैस्तैस्तैः स्वभावैर्विमुक्ते। स्याच्चेदस्मिन्ज्ञानचातुर्यमेकं,तद्धत्तेऽसौशुद्धसिद्धात्मसाम्यम् ॥६६६ ॥( शालिनी) धर्म और अधर्म (धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय) से उत्पन्न होते जीव तथा अन्य पुद्गल की गति-अगति आदि है वह स्वभाव से रहित यह आलोक में यदि एक ज्ञान चातुर्य ही हो अर्थात् अनन्त ज्ञान शक्ति यदि हो तो यह आलोक शुद्ध सिद्ध भगवन्त के आत्मा के साथ में समानता धारण कर सकता है । (६६६) विश्वाश्चर्य कीर्ति कीर्तिविजय श्रीवाचकेन्द्रान्ति षद्राज श्री तनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः। काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जग तत्वप्रदीपोपमे, सम्पूर्णः खलु सप्तविंशति तमः सर्गो निसर्गोज्जलः ॥६७०॥ विश्व को आश्चर्य चकित करने वाली कीर्ति है । ऐसे श्री उपाध्याय भगवन्त श्री कीर्ति विजय जी महाराज के शिष्य तथा तेजपाल और राज श्री के पुत्र विनय विजय जी उपाध्याय ने निश्चित जगत के तत्व के लिए दीपक समान जो काव्य-लोक प्रकाश नामक महाग्रन्थ बनाया है उसमें कुदरती उज्जवल सत्ताईसवां सर्ग सम्पूर्ण हुआ है। (६७०) . ___... ॥ इति महोपाध्याय श्री विनय विजय गणिरचिते श्री लोक प्रकाशे सप्तविंशति तमः सर्गः समाप्तः ॥ ॥ग्रं० ७२३॥ तत्समाप्तौ च समाप्तोऽयं क्षेत्र लोकः ॥ ग्रं० ७२१५॥ इस तरह महा उपाध्याय श्री विनय विजय जी विरचित श्री लोक प्रकाश, तीसरा भागक्षेत्र लोक का उत्तरार्द्ध युग दृष्टा भारत दिवाकर आचार्य भगवन्त श्रीमद्. विजय वल्लभ सूरीश्वर जी के समुदाय के उत्तर प्रदेशो द्वारक परम पूज्य आचार्य देव
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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