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________________ ( ५६३ ) इस सिद्ध शिला के मध्य भाग की मोटाई आठ योजन है उसके बाद प्रत्येक योजन-योन में मोटाई के अन्दर से अंगुल पृथकत्व कम हो जाता है उसके बाद आखिर छेडे आता है उस समय अंगुल के असंख्यात वे भाग प्रमाण में मक्खी की पंख जितनी मोटाई होती है । (६५६ - ६५८) तुषारहारगो क्षीरधाराधवलरोचिषः 1 नामान्यस्याः प्रशस्याया द्वादशाहुजिनेश्वराः ॥ ६५६ ॥ ? हिम- बरफ, मोती की माला और दूध की धारा समान धवल उज्जवल कान्ति वाली, प्रशस्य सिद्ध शिला के श्री जिनेश्वर भगवान ने बारह नाम कहे हैं । (६५६) वह इस प्रकार हैं - ईष १ तथेषत्प्राग्भारा २ तन्वीच ३ तनुतन्विका ४ । सिद्धिः ५ सिद्धालयो ६ मुक्ति ७ मुक्तलयो ८ऽपि कथ्यते ॥ ६६० ॥ लोकाग्रं तत्स्तूपिका च १० लोकाग्रप्रतिवाहिनि ११ । तथा सर्व प्राण भूतजीव सत्त्व सुखा वहा १२ ॥६६१॥ १ - इषत्, २ - इषत् प्राग्भारा, ३- तन्वी, ४- तनुतन्विका, ५ - सिद्धि, ६- सिद्धालय, ७- मुक्ति, ८- मुक्तालय, '६ - लोकाग्र, १० - लोक स्तूपिका, - लोकाग्र प्रति वाहिनी और १२ - सर्व प्राण भूत जीव सत्त्व सुखा वहा । इस तरह से सिद्धशिला के बारहं नाम जानना चाहिए । (६६०-६६१) ११ उत्तानच्छत्रसंकाशा, घृत पूर्णां करोटि काम् । तादृशां तुल्यत्यस्या, लोकान्तो योजने गते ॥६६२॥ अथवा यह सिद्धशिला उल्टे छत्र समान है, घी से भरे कटोरे के समान है और सिद्धशिला से एक योजन जाने के बाद लोकान्त आता है । (६६२) ऊचुर्द्वादश योजन्याः, केचित्त्सर्वार्थसिद्धितः । लोकान्तस्तत्र तत्त्वं तु ज्ञेयं केवल शालिभिः ॥६६३ ॥ कोई कहता है कि - सर्वार्थ सिद्धि से बारह योजन जाने के बाद सिद्ध शिला नही परन्तु लोकान्त आता है । इसमें असलियत तत्त्व क्या है वह केवली भगवन्त जाने । (६६३)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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