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क्योंकि यह देव उत्पन्न होता है तब से ही उतने ही प्रदेश को अवगाही कर रहता है, इससे उसके अवधिज्ञान के क्षेत्र के अवस्थान को निश्चय रुप में उतना ही जानना । (६५१)
तथोक्तं विशेषावश्यके : -
खेत्तस्स अवाणं तेतीसं सागरा उ कालेणं । दव्वे भिन्नमुहुत्तो पज्जवलंभे य सत्तट्ठ ॥६५२ ।।...
श्री विशेषावश्यक में कहा है कि - क्षेत्र का अवस्थान काल से तेतीस सागरोपम द्रव्य से भिन्न मुहूर्त और पर्याय प्राप्ति में सात-आठ हैं । (६५२) इसका अर्थ स्पष्ट नही है । .
. सर्वार्थसिद्धशृङ्गाग्राद्गत्वा द्वादशयोजनीम् । जात्यार्जुनस्वर्णमयी, भाति सिद्धि शिलाऽमला ॥६५३॥
अब श्री सिद्धशिला का वर्णन करते हैं - सर्वार्थ सिद्ध विमान के शिखर से बारह योजन ऊँचे जाने के बाद जातिमान अर्जुन सुवर्णमय निर्मल सिद्धशिला शोभायमान है । (६५३)
पञ्चचत्वारिंशता सा, मिता योजनलक्षकैः । विष्कम्भादायामतश्च परितः परिधिः पुनः ॥६५४॥ .. एका कोटि योजनानां सहस्त्रैस्त्रिंशताऽन्विता । द्वि चत्वारिंशता लक्षैर्योजनानां द्विशत्यपि ॥६५५।।
यह सिद्ध शिला पैंतालीस लाख योजन लम्बी चौडी है और परिधि का एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दौ सौ उन्नचास (१,४२,३०,२४६) योजन प्रमाण होता है । (६५४-६५५)
तथा पञ्चाशदेकोनाः, योजनानां च साधिका । बाहल्यं मध्य भागेऽस्या, योजनान्यष्ट कीर्तितम् ॥६५६॥ स मध्य भागो विष्कम्भायामाभ्यामष्ट योजनः । ततोऽऽङ् गुल पृथकत्वं च योजने योजने गते ॥६५७॥ बाहल्यं हीयते तेन, पर्यन्तेष्वख्लेिष्वपि । अङ्गलासंख्यभागाङ्गी मक्षिकापत्रतस्तनुः ॥६.५८॥