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(५५८) .. . श्री भगवती सूत्र के चौदहवें शतक सातवें उद्देश में कहा है कि शालि आदि की सात कवलिका को छेदन करते जितना समय लगता है उतने समय में मनुष्यायुष्य घटने कम होने से मर कर मोक्ष के योग्य - तत्काल मोक्ष जाने वाले श्रेष्ठ अध्यवसाय वाले होने पर भी कर्म अवशेष शेष रह जाने से सर्वार्थ सिद्ध विमान में रहे वे भव सप्तम देव जय प्राप्त करते हैं । (६३८-६३६)
आद्य संहननाश्चैष, स्वाराद्धो ज्जवलसंयमाः । . . भव्याः स्वल्पभवा एवायान्ति यान्ति च नृष्वमी ॥६४०॥ ।
आद्य सहं मन वाले, स्वयं उज्जवल संयम की आराधना करके अल्पभवी भव्यात्मा ही यहां उत्पन्न होते हैं और ये देव च्यवन कर मनुष्य में ही उत्पन्न होते हैं। (६४०)
कर्मभूमि समुत्पन्ना, मानुष्योऽपि शुभाशयाः । सम्यग्दृशः शुक्ललेश्या, ज़ायन्तेऽनुत्तरेष्विह ॥६४१॥
कर्म भूमि में उत्पन्न हुए शुभाशय वाले, सम्यग दृष्टिशुक्ल लेश्या वाले स्त्रियाँ - साध्वी जी भी अनुत्तर में उत्पन्न होती हैं । (६४१) ...
तथाहुः केरिसिया णं भंते' मणुस्सी उक्कोसकालठिइयं आउ यकम्म बंधति गोयम० कम्मभूमीया वा' इत्यादि प्रज्ञा० त्रयोविंशतित में पदे । मानुषी सप्तम नरक योग्यमायुर्न बध्नाति, अनुत्तर सुरायस्तु वध्नातीत्येत वृत्तो।'
हे भदंत ! किस प्रकार की स्त्रियाँ उत्कृष्ट काल स्थिति वाला आयुष्य कर्म बंधन करती है ? हे गौतम ! कर्म भूमि में उत्पन्न हुई होती है इत्यादि । यह बात प्रज्ञापना सूत्र के २३ वें पद में कही है और उसकी ही टीका में कहा है - कि मनुष्य स्त्रियाँ सातवीं नरक के योग्य आयुष्य बंधन नहीं करती है परन्तु अनुत्तर देत का आयु का बन्धन कर सकती है ।
जीवाः सर्वार्थसिद्धे तूद्भवन्त्येक भवोद्भवाः । च्युत्वा ते भाविनि भवे, सिद्धयन्ति नियमादितः ॥६४२॥
विजयादि विमान के लिए ऐसा नियम नही जबकि सर्वार्थ सिद्ध में तो एक जन्म में सिद्ध होने वाले जीव ही उत्पन्न हो तो वहां से च्यवन कर दूसरे जन्म में निश्चय सिद्ध होने वाला होता है । (६४२)