________________
(५५७)
सर्वार्थे तु त्रयस्त्रिशन्मितैर्वषेसहस्रकैः । प्सान्ति सार्द्ध षोडशभिर्मासैरेवोच्छ्वसन्ति च ॥६३५॥
सर्वार्थ सिद्ध विमान के देव तेतीस हजार वर्ष आहार करते हैं और साढ़े सोलह महीने के बाद उच्छवास लेते हैं । (६३५)
पशु क्रियाभिलास्तु नैतेषां तत्त्वदर्शिनाम् । प्राग्भवाभ्यस्तनवमरसार्टीकृतचेतसाम् ॥६३६॥
पूर्व जन्म से अभ्यस्त शांत रस द्वारा उनका चित्त आर्द्र-नरम बना है ऐसे तत्त्वदर्शी देवों को पशुक्रिया की अभिलाषा नही होती है । (६३६)
अति प्रतनु कर्माणो, महाभागाः सुरा अभी ।। इहोत्पन्नाः पृष्ठभक्त क्षेप्यक विशेषतः ॥६३७॥
छद्रुतप (दो उपवास) से खत्म हो सके इतने केवल कर्म शेष रह जाने पर अति पतले कर्म वाले महा भाग्यशाली देव यहां उत्पन्न होते हैं । (६३७)
- यदाहुः पञ्चमाङ्गे - "अणुत्तरोववाइया णं देवा णं भंते ! केवइएणं कम्मा वसे सेणं अणुत्तरोववाइयत्तेणं उववण्णा ? गोयम ! जावतियन्नं छट्ठ भतिए समणे निग्गथे कम्मं निज्जरेइ एवतिएणं कम्मावसे सेणं अणुत्तरोववाइ यत्ताए उववण्णा'' इति ।
- पाँचव श्री भगवती सूत्र में कहा है कि - हे भगवन्त ! अनुत्तरवासी देव कितने कर्म शेष रहने से अनुत्तर देवलोक में उत्पन्न होते हैं ? तब प्रभु ने कहा - हे गोतम ! छट्ठ का पच्चक्खान से साधु भगवन्त जितने कर्मों की निर्जरा करते हैं उतने कर्म शेष रह जाने से अनुत्तर रूप में उत्पन्न होते हैं ।
शाल्यादिक बलिकानां सप्तानां छेदने भवति यावान् । कालस्तावति मनु जायुष्के ऽपर्याप्तवत्ति मृत्वा ॥६३८॥ मोक्षार्हाध्यवसाया अपि ये कर्मावशेषतो जाताः । लवंसप्तमदेवास्ते जयन्ति सर्वार्थसिद्धस्थाः ॥६३६॥ .... इति भगवती सूत्र शतक १४ उ० ७