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मौक्तिकानामथैतेषां तरुत्तरङ्गितः । . परस्परेणास्फलतां, जायते मधुर ध्वनिः ॥६२८॥ सर्वातिशायिमाधुर्य, तं च श्रोत्रमनोरमम् ।। चक्रि देवेन्द्र गन्धर्वादप्यनन्तगुणाधिकम् ॥६२६॥ ध्वनितं शृण्वतां तेषां, देवानां लीन चेतसाम् । अप्यब्धयस्त्रयस्त्रिंशदतियान्ति निमेषवत् ॥६३०॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥
पवन के तरंग से परस्पर टकराते इन मोतियों में से मधुर ध्वनि उत्पन्न होती है, वह मधुर ध्वनि शक्री, देवेन्द्र और गन्धर्व आदि के संगीत से भी अनंतगुणा अधिक होती है । सर्वातिशायी माधुर्य से युक्त होता है और कान को अत्यन्त मनोरम होता है । इस मधुर ध्वनि को सुनने में लीन चित्त वाले उन देवों का तेतीस सागरोपम की आंख के पलकारे के समान समय व्यतीत हो जाता है । (६२८-६३०) .
विजयादि विमानेषु चतुर्षु नाकिनां वपुः । एक त्रिंशदभ्युनिधि स्थितिकांना करद्वयम ॥६३१॥ वपुर्वात्रिंशदम्भोधिस्थितीनां तु भवेदिह । एके नैकादशांशेन, कर एकः समन्वितः ॥६३२॥
विजयादि विमान में रहे ३१ साग़रोपम के आयुष्य वाले देवों का देहमान दो हाथ का होता है, जबकि बत्तीस सागरो के आयुष्य वाले देवों का शरीरमान १६ हाथ का होता है । (६३१-६३२)
एकः करस्त्रयस्त्रिंशदम्भोधिजीविनां तनुः । देवाः सर्वार्थ सिद्धे तु, सर्वेऽप्येककरोच्छ्रिताः ॥६३३॥
तेतीस सागरोपम आयुष्य वाले देवों का शरीरमान एक हाथ का है और सर्वार्थ सिद्ध विमान में सर्व देवों का शरीरमान एक हाथ होता है । (६३३)
विजयादि विमानस्थाः स्वस्थित्यम्बुधि संख्यया। पक्षैः सहस्त्रैश्चाद्वानामुच्छ्वसन्त्याहरन्ति च ॥६३४॥
विजयादि विमान में रहे देवता अपने-अपने आयुष्य सागरोपम की संख्या अनुसार पक्ष में श्वासो-श्वास लेते हैं और उतने हजार वर्ष में आहार लेते हैं । (६३४)