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________________ (५५५) यह अभिप्राय प्रज्ञापना सूत्र का है । श्री समवायांग सूत्र में तो इस तरह कहा है - प्रश्न - "हे भदंत! विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित विमानो के देवताओं की स्थिति कैसी होती है ? तब भगवान उत्तर देते हैं - हे गौतम ! जघन्य से बत्तीस सागरोपम और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम होता है ।" स्थितिः सर्वार्थ सिद्धे तु स्यादुत्कृष्टैव नाकिनाम् । त्रयस्त्रिंशम्बुधयो जघन्या त्वत्र नास्ति सा ॥६२२॥ स्वार्थ सिद्ध देवों की तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति ही होती है, परन्तु जघन्य स्थिति उनकी नहीं होती है । (६२२) प्रतिशय्यं विमानेऽस्मिन्नस्ति चन्द्रोदयो महान् । मुक्ता फलमय स्फूर्जत शरत्चन्द्रात पोज्जवलाः ॥६२३॥ इन विमान के प्रत्येक शय्या में मोतियों से युक्त देदीप्यमान, शरद ऋतु के चन्द्र के आतप समान उज्जवल चदंरवा होता है । (६२२) तत्र मध्ये चतुः यष्टिमणप्रमाणमौक्तिकम । द्वात्रिंशन्मणमानानि, चत्वारि परितस्त्वदः ॥६२४॥ .अष्टौ तत्परितो मुक्ताः, स्यु षोडरामणैर्मिताः । स्युः षोडशैताः परितो, मुक्ता अष्टमणोन्मिताः ॥६२५॥ द्वात्रिीशदेताः परितस्ताश्चतुर्मणसंमिताः । तंतः परं चतुःषष्टिर्मण द्वय मितास्ततः ॥६२६॥ अष्टाविशं शतं मुक्ता, एकैकमणसंमिताः । यथोत्तरमथावेष्ट्य, स्थिताः पङ्क्त या मनोज्ञया ॥६२७॥ प्रत्येक चंदरवे के मध्यम चौसठ मन जितना एक मोती होता है । उसके चारों तरफ बत्तीस मन के चार मोती होते हैं । उसके आस पास सोलह मन के आठ मोती होते हैं , उसके आस पास आठ मन के सोलह मोती होते हैं, उसके आस पास चार मन के बतीस मोती होते हैं, उसके आस पास दो मन के चौसठ मोती होते हैं और उसके आस पास एक मन के एक सौ अट्ठाईस मोती होते हैं । ये सभी मोती एक के बाद एक सुन्दर पंक्तिबद्ध रुप में स्थित होते हैं । (६२४-६२६)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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