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________________ (५५४) ग्रैवेयकवदत्रापि देवाः सर्वेऽहमिन्द्रकाः । । सर्वे मिथः समैवयरुपकान्ति सुखश्रियः ॥६१७॥ ग्रैवेयक के समान यहां के भी सर्व देव अहमिन्द्र है ऐश्वर्य रुप, कान्ति, सुख और शोभा आदि से परस्पर समान होते हैं । (६१७) येष्वाकाश प्रदेशेषु, शय्यायां प्रथमक्षणे । .. · यथोत्पन्नस्तथोत्तानशया एव भवावधि ॥६१८॥ . शय्या में जिस आकाश प्रदेश में प्रथम क्षण में जैसे उत्पन्न होते हैं उसी तरह ही जिंदगी तक सदा सोते रहते हैं । (६१८) . सर्व संसारिजीवेभ्यः सर्वोत्कृष्टसुखाश्रयाः। लीलयैवामितं कालं गमयन्ति निमेषवत् ॥६१६॥ . सर्व संसारी जीवो से सर्वात्कृष्ट सुखी ये देव अपरिमित काल को भी लीली मात्र में आंख के पलकारे के समान व्यतीत करता है । (६१६) तथाहुविंशेषावश्यके :विजयाइ सूवपाएजत्थो गाढो भवक्रवओ जावं । खेतेऽवचिट्ठइतहिं दव्वेसु य देहसयणे सुं ॥६२०॥ श्री विशेषावश्यक सूत्र में कहा है कि - विजयादि विमानो का उपघात शय्या में देव जिस आकाश प्रदेश के अवगाही में उत्पन्न होते हैं वहां उस क्षेत्र में उसी ही द्रव्य में उसी ही देह के शयन में अंत तक रहता है । (६२०) एकत्रिंशद्वारिधयश्चतुर्पु विजयादिषु । स्थितिर्जघन्योत्कृष्टा तु, त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः ॥६२१॥ विजयादि चार विमानों में जघन्य स्थिति एक्तीस सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है । (६२१) . इति प्रज्ञापनाभिप्रायः समवायाले तु - विजयवेजयंत जयंत अपराजियाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई प० ? गोयम ! जहठ बत्तीसं सागरो उक्को तेत्तीस सागरो०"।
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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