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शद्वोपभोगिनस्तेभ्यस्तेभ्यश्चित्तोपभोगिनः । । तेभ्योऽनन्त गुण सुखा, रतेच्छावर्जिताः सुराः ॥५६६॥
इसका उत्तर देते हैं - अत्यन्त मंद पुरुष वेद के उदय वाले ये देव होते हैं । इससे पूर्व बारह देवलोक के देवों से अनंतगुणा सुखी होते हैं । वह इस तरह से समझना, काया से भोग करने वाले देवों से स्पर्श से भोग करने वाले देव अनंत गुण सुखी होते हैं, उससे रूप भी देखकर सेवन करने वाले, उसके शब्द द्वारा सेवन करने वाले उससे चित्त के द्वारा सेवन करने वाले उससे भोग की इच्छा बिना के देव अनंत गुणा सुखी होते हैं । (५६४-५६६) .
यच्यैषां तनुमोहानां, सुखं संतुष्टचेतसाम् । .. वीतरागाणामिवोचैस्तदन्येषां कुतो भवेत् ॥५६७॥ : .
श्री वीतराग परमात्मा के समान अत्यन्त पतले मोह वाले और संतुष्ट चित्त वाले इन देवों को जो सुख है, वह दूसरों को कहां से हो सकता है ? (६७) .
मोहानुदयजं सौख्य, स्वाभाविकमति स्थिरम् । सोपाधिकं वैषयिकं, वस्तुतो दुःखमेव तत् ॥५६८॥
मोह के उदय बिना का जो सुख होता है, वह स्वाभाविक और स्थिर होता है जबकि विषय का सुख तो उपाधि वाला है और वस्तुत: में दुःखरुप है । (५६८)
भोज्याङ्गनादयो येऽत्र. गीयन्ते सुखहेतवः ।। रोचन्ते न त एव क्षुत्कामाद्यर्ति विनाऽङ्गिनाम् ॥५६६ ॥
भोजन और स्त्री आदि जो सुख का हेतु कहलाता है, वही वैषयिक सुख भी बिना भूख के और बिना काम के जीवों को रूचिकर नहीं होता है । (५६६)
ततो दुःख प्रतिकार रूपा, एते मतिभ्रभात् । सुखत्वेन मता लोकैर्हन्त मोहविडम्बितैः ॥५७०॥
इससे मोह द्वारा विडम्बित हुए लोको से मति भ्रम द्वारा केवल दुःख के प्रतिकार रूप गिना जाता है उस विषय में भी सुख रूप में माना जाता है ! कैसी
खेद की बात है । (५७०) उक्तं च "तृषा शुष्यत्यास्ये पिवति सलिलं स्वादु सुरभि, ..
क्षुधातः सन् शालीन् कवलयति मांस्पाकवलितान् ।" .