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________________ (५४५) श्री अरिहन्त परमात्मा की प्रतिमा होती है उसकी साधु के समान भाव से पूजा करते हैं, द्रव्य से पूजा नहीं करते । (५५६-५६०) गीतवादित्रनाटयादिविनोदो नात्र कर्हिचित् ।। गमनागमनं कल्याण कादिष्विपि न क्कचित् ॥५६१॥ यहां किसी भी स्थान - किसी भी ग्रैवेयक में गीत बाजे नाटकादि विनोद नही होता तथा श्री अरिहंत के कल्याणक में भी कभी गमनागमन नहीं होता है। (५६१) तथोक्तं तत्त्वार्थ वृत्तो - 'गैवेयकादयस्तु यथावस्थिता एवं कायवाड्मनोभिरम्यु त्थानाञ्जलि प्रणिपात तथा गुण वचनैकाग्रय भावना भिर्भगवतोऽर्हतो नमस्यन्ती' ति। . श्री तत्वार्थ सूत्र की टीका में कहा है कि यथावस्थित गरैवेयक के देव अभ्युत्थान अंजली और प्रतिपात से काया द्वारा गुणकारी वचनों के आलाप से वचन द्वारा और एकाग्र भावना पूर्वक मन द्वारा श्री अरिहंत परमात्मा को नमस्कार करते हैं । इत्यादि - . सुरते तु कदाप्येषां, मनोऽपि न भवेन्मनाक् । निर्मोहानामिवर्षीणां सदाप्यविकृतात्मनाम् ॥५६२॥ . निर्मोही ऋषियों के समान सदा अविकारी ग्रैवेयक के देवों को भोगने की इच्छा सहज भी मन नहीं होती है । (५६२) न चैवं गीतसंगीतसुरतास्वादवर्जितम् । किमेतेषां सुखं नाम, स्पृहणीयं यदङ्गिनाम् ॥५६३॥ यहां प्रश्न करते हैं कि - इस ग्रैवेयक के देवों को गीत, संगीत और भोग के आस्वाद रहित का सुख किस तरह कहलाता है जो अन्य प्राणियों को इच्छित है। (५६३) अत्रोच्यते ऽत्यन्तमन्दपुंवेदोदयिनो ह्यमी । तत्प्राक्तनेभ्यः सर्वेभ्योऽनन्तधसुखशालिनः ॥५६४॥ तथाहि काय से विभ्योऽनन्त ध्रसुख शालिनः । स्युः स्पर्श सेविन स्तेभ्यस्त्थैव रूपसेवितः ॥५६५॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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