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(५४४) एषु देवतयोत्पन्ना, जीवाः सुकृतशालिनः । सुखानि भुञ्जते म तेजसः सततोत्सवाः ॥५५६॥
यहाँ पुण्यशाली और अत्यन्त तेजस्वी जीव देव रुप में उत्पन्न होता है और लगातार उत्सव पूर्वक सुख को भोगता है । (५५६)
सर्वेऽहमिन्द्रा अप्रेष्या, अनीशा: अपुरोहिताः ।। तुल्यानुभावास्तुल्याभाबलरुपयशः सुखाः ॥५५७॥
यहाँ रहे सर्व देव अहमिन्द्र है, उनके कोई नौकर नही, है और अपने कोई स्वामी नहीं है और पुरोहित भी नहीं है तथा तेज प्रभाव बल-यश और सुख सबका समान होता है । (५५७)
स्वाभाविकागां एवामी अकृतोत्तरवैक्रियाः । वस्त्रालङ्कार रहिताः प्रकृतिस्था विभूषया ॥५५८॥ ..
यह देव स्वाभाविक शरीर वाला उत्तर वैक्रिय को नहीं करने वाले वस्त्रालंकार रहित प्रकृति से शोभावाले होते हैं । (५५८)
तथाहुः - "गेवेञ्चग देवाणं भंते ! सरीरा केरिसा विभूभाए पण्णत्ता ? गो० ? गेविज्जगदे वाणं ऐं भवधारणिज्जे सरीरे, ते णं आभारण वंसण रहियापगतिव्था विभूसाएपण्णत्ता" इति जीवाभिगमे। . __श्री जीवाभिगम में कहा है कि हे भगवन्त ! ग्रैवेयक देव शरीर शोभायमान कैसे होते है ? - हे गौतम ! ग्रैवेयक देवों के एक भव धारणीय शरीर वाले होते हैं और आभूषण, वस्त्र से रहित होते हैं, फिर भी सहज स्वभाव से शोभायमान होते
यथाजाता अपि सदा, दर्शनीया मनोरमाः ।
। प्रसृत्वरै द्युतिभरै घोर्तयन्तो दिशो दश ॥५५६॥ यास्तु संति तत्र चैत्ये, प्रतिमाः श्रीमदर्हताम् । भावतस्ताः पूज्यन्ति, साधुवद् द्रव्यतस्तु न ॥५६०॥ .
फैलते तेज दस दिशाओं को प्रकाशित करने वाले इस ग्रेवेयक के देव वस्त्र रहित होने पर भी दर्शनीय और मनोरम है । ग्रैवेयकवासी देव वहां चैत्य के अन्दर