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________________ (५४७) प्रदीप्ते कामानौ दहति तनुमाश्रुिष्यति वधूं । प्रतीकारो व्याधौः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ॥५७१ ॥ कहा भी है कि - सुख में तृषा से शोष पड़ता है, तब ही मधुर और सुगन्धी जल मनुष्य पीता है, उसी समय अच्छा लगता है । भूख से पीड़ित व्यक्ति ही अच्छे संस्कार किए चावल आदि भोजन बनाता है और खाता है ..... प्रदीप्त हुई कामाग्नि जब जल रही हो, या जला रही हो उस समय ही मनुष्य पत्नी का आलिंगन करता है । इसी तरह से जो व्याधि-पीड़ा का प्रतिकार करता है । उसे भी लोक विपर्यास से सुख रूप में मानता है । (५७१) . नन्वेवं यदि निर्वाणमदनज्वलनाः स्वतः । कथं ब्रह्मवतं नैते, स्वीकुर्वन्ति महाघिय ॥५७२॥ प्रश्न करते हैं - यदि इन देवों को कामज्वर स्वतः स्वभाविक रूप में ही शान्त हो गया है तो फिर बुद्धिशाली देव ब्रह्मचर्य व्रत को क्यों स्वीकार नहीं करते? (५७२) .. अत्रोच्यते देवभवस्वभावेन कदापि हि । एषां. विरत्यभिप्रायो, नाल्पीयानपि संभवेत् ॥५७३॥ उत्तर - देव भव के स्वभाव से इन देवों को कभी भी विरति का थोड़ा भी परिणाम उत्पन्न नहीं होता है । (५७३) भवस्वभावै चित्रथं चाचिन्त्यं पशवोऽपि यत् । भवन्ति देशविरतास्त्रिज्ञाना अप्यमी तु न ॥५७४॥ - संसार के स्वभाव की विचित्रता कैसी अचिंत्य है कि पशु भी देश विरति प्राप्त कर सकता है, जबकि तीन ज्ञान धारण करने वाले देव विरति के परिणाम को नहीं प्राप्त कर सकते हैं । (५७४) आद्यग्रैवेयकेऽमीषां स्थितिरूत्कर्ष तोऽष्ययः । ... स्युस्त्रयोविंशतिर्लध्वी द्वाविंशतिः पयोधयः ॥५७५।। पहले ग्रैवेयक के देवों का उत्कृष्ट आयुष्य तेईस सागरोपम का है और . जघन्य आयुष्य बाईस सागरोपम का होता हे । (५७५)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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