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एवं च भवनाधीशेष्वप्येते दशधा सुराः । भवन्त्यष्टविधा एव ज्योतिष्क व्यन्तरेषु ॥५२६॥ जगत्स्वाभाव्यतस्तत्र, द्वौ भेदो भवतो न यत् । त्रायस्त्रिशा लोकपाला, अच्युतात्परत पुनः ॥५३०॥ ग्रैवेयकानुत्तरेषु स्यः सर्वेऽप्यहमिन्द्रकाः ।
देवा एक विधा एव कल्पातीता अभी ततः ॥५३१॥ . भवनपति के अन्दर में भी इस तरह से दस प्रकार के देव होते है जब-जब कि ज्योतिष और व्यतंर में आठ प्रकार के देव होते हैं । जगत के स्वभाव से ही त्रायस्त्रिंश और लोकपाल ये दो भेद व्यन्तर ज्योतिषी में नही होते अच्युत से आगे ग्रैवेयक और अनुत्तर में सब देव अहमिन्द्र होते हैं सभी देव एक प्रकार के ही होते हैं और वे कल्पातीत कहलाते हैं । वहां स्वामी सेवक भाव का आचार नहीं होता, इसलिये वे कल्पातीत कहलाते हैं । (५२६-५३१) ..
आरणाच्युतनाकाभ्यां, दूरमूवं व्यतिक्रमे । .. नवगैवेयकाभिख्याः प्रतरा दधति श्रियमः ॥५३२॥
अब नौ ग्रैवेयक का वर्णन करते हैं :- आरण और अच्युत देवलोक से बहुत ऊँचे जाने के बाद ग्रैवेयक नाम के नौ प्रतर शोभायमान है । (५३२)
अघस्तनं मध्यमं च, तथो परितनं त्रिकम् । विधाऽमी रत्न रूगूरम्या संपूर्णचन्द्र संस्थिताः ॥५३३॥
अधस्तनत्रिक, मध्यमत्रिक और उपस्तिनत्रिक इस तरह से तीन प्रकार के होते है, तीनों प्रकार के ग्रैवेक सम्पूर्ण चन्द्राकार रत्न समान तेजस्वी होते हैं । (५३३)
अनुत्तरमुखस्यास्य, लोकस्य पुरुषाकृतेः । दधते कण्ठपीठेऽमी, मणी ग्रैवेयकश्रियम् ॥५३४॥ ..
अनुत्तर देवलोक है वह मुख समान है, वह पुरुषाकृति वाले लोक के कंठ विभाग में है, ये नौ ग्रैवेयक मणि के कंठपीठ समान शोभते हैं। (५३४).
प्रतरेषुनवस्वेषु क मादिकै कमिन्द्रकं । सुदर्शनं सुप्रबुद्ध मनोरमं ततः परम् ॥५३५॥