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स्थानाङ्ग पञ्चमस्थाने तु आनत प्राणतयोरारणाच्युतयोश्च प्रत्येकमिन्द्रा तिवक्षिता दृश्यंते तथा च तत्सूत्रं - 'जहां सक्कस्स तहा सत्वेसिंदाहिणिल्लाणं जाव आरणस्स, जहा ईसाणस्स तहा सव्वेसिं उत्तरिल्लाणं जाव अच्युयस्स' एतद् वृत्तावपि देवेन्द्रस्तवाभिधान प्रकीर्णक इव द्वादशानामिद्राणां विवक्षणादारणस्ये त्याद्युक्तमिति संभाव्यते, प्रज्ञापना जीवाभिगम सूत्रा दौ तु दशैव वैमानिकेन्द्रा उक्ता इति प्रतीतमेव ।।
___ श्री स्थानांग सूत्र के पांचवे स्थान में आनत-प्राणत आरण और अच्युत ये चारों देवलोक के अलग-अलग इन्द्र विवक्षित दिखते हैं । उसका सूत्र इस तरह है - जैसे शक्र महाराज का वर्णन है उस तरह दक्षिण दिशा के सर्व इन्द्रों को जानना यावत् आरण तक जिस तरह से जैसे ईशानेन्द्र का वर्णन है वैसे सभी उत्तर दिशा के इन्द्रों को जानना यावत् अच्युतेन्द्र तक और इसकी टीका में भी देवेन्द्र स्तव नामक प्रकरण के समान जैसे बारह इन्द्रों की विवक्षा की है इससे 'अरध के इन्द्र का' .......... इत्यादि कहना संभव हो सकता है अन्य चार देवलोक में दो इन्द्र होते हैं । अत: आरण ...... इत्यादि कहना घट नहीं सकता है । पज्ञापना सूत्र तथा जीवाभिगम सूत्र आदि में तो दस ही वैमानिक इन्द्र कहे हैं जो प्रतीत ही होते हैं. ।
अच्युतस्वर्गपर्यन्तमेषु वैमानिके ष्विति । यथासंभवमिन्द्राधा, भवन्ति दशधा सुराः ॥५२६॥
अच्युत स्वर्ग तक के ये वैमानिक देवलोक में संभव अनुसार इन्द्रादि दस प्रकार के देव होते हैं । (५२६) . . तथाहि - इन्द्राः सामनिकास्त्रायस्त्रिंशास्त्रिविधषदाः ।
. आत्मरक्षालोकपाला, आनीकाश्च प्रकीर्णकाः ॥५२७॥
अभियोग्या: किल्बिषिका,एवं व्यवस्थयाऽन्विताः। अतः एवं च कल्पोपपन्ना वैमानिका अमी ॥५२८॥
वह इस तरह से :- १-इन्द्र, २-सामानिक, ३-त्रायस्त्रिंश,४-तीन प्रकार की पर्षदा, ५-आत्म रक्षक देव,६-लोकपाल, ७-सैन्य, ८-प्रकीर्णक, ६- अभियोगिक
और १०-किल्बिषिक इस तरह की व्यवस्था से युक्त होने से ये विमानिक देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं । (५२७-५२८)
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