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________________ ( ५३५) त्रिधा च यदि शुद्धाऽहं तर्हिदर्शय कौतुकम् । लाकानेतान् जलीभूय भूयस्तरङ्गरङ्गितैः ॥५००॥ " और यदि मैं मनवचन काया से शुद्ध हूँ तो अनेक तरंगो से कल्लोल वाला जल बनकर इन सब लोगों को चमत्कार दिखा दो । (५००) अत्रान्तरे च वैताढयस्योत्तर श्रेणिवर्त्तिनः । हरिविक्रमभूभर्त्तुर्नन्दनो जयभूषणः ऊढाप्टशत भार्यः स्वकान्तां किरण मण्डलाम् । सुप्तां हेमशिखाख्येन समं मातुलसूनुना ॥५०२॥ दृष्टा निर्वासयामास दीक्षा च स्वयंमाददे । विपद्य समभूत् सापि, विद्युदंष्ट्रेति राक्षसी ॥५०३ ॥ जयभूषणसाधोश्चं, तदाऽयोध्यापुराद्बहिः । तयाकृतोपसर्गस्योत्पेदे, केवलमुज्ज्वलम् ॥५०४॥ ? " ॥५०१ ॥ आजग्मुस्तत्र शक्राद्यास्तदुत्सवविधित्सया । आयान्तो ददृशुस्तं च, सीताव्यतिकरं पथि ॥५०५ ॥ ततस्तस्या महासत्याः, साहाय्यायादिशद्धरिः । पदात्यनिकेशं साधोः समीपे च स्वयं ययौ ॥ ५०६ ॥ इतने में वैताढ्य की उत्तर श्रेणी में रहने वाला हरि विक्रम राजा का पुत्र जयभूषणं था उसने आठ सौ स्त्रियों से विवाह किया था । उसने अपनी किरण मंडला नाम की पत्नि को मामा के पुत्र हेमशिख के साथ में सोये देखकर निकाल थी और स्वयं ने दीक्षा ली थी और वह स्त्री मरकर विधु दृष्टा नाम की राक्षसी बनी थी । उस समय जयभूषण मुनि अयोध्या नगरी के बाहर थे तब उसने मुनि को उपसर्ग किया था । वह सहन करते हुए शुभ परिणाम से मुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था । उस समय शक्र आदि देव केवलज्ञान महोत्सव करने के लिए आ रहे थे, उस समय उन्होंने रास्ते में सीता का यह दृश्य देखा, इससे इन्द्र महाराज ने अपने पदानि सैन्याधिपति हरिणैगमेषीदेव को महासमी सीता की सहायता करने का आदेश किया और स्वयं उस महात्मा के पास में गया । (५०१-५०६)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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