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(५३६) ततस्तस्यां रवातिकायां, सा सीता निर्भयाऽविशत्।
अभूच्य सुरसाहाय्यात्क्षणादच्युदकै ता ॥५०७॥ इधर उस समय में उस खाई, खड्डे में सीता ने निर्भयता पूर्वक प्रवेश किया और देव की सहायता से वह खाई क्षण भर में पानी से भर गई । (५०७)
तदुच्छलज्जलं तस्या, उद्वेलस्येव तोयधेः । . उत्प्लावयामासमञ्चांस्तुङ्गान् द्रष्ट्रजनाश्रितान् ॥५०८॥
उसके बाद उछलते पानी को उछलते तरंगो के समान देखने के लिए आए लोक के मांचडे को खींचने लगे । (५०८)
उत्पतन्त्यम्बरे विद्याधरा भीतास्ततो जलात् ।
चुकशुर्भूचराचैवं पाहि सीते ! महासति ॥५०६॥ .
उस समय उस उछलते जल से भयभीत बने विद्याधर आकाश में उड़ गये, भूचर मनुष्य भरा से चिल्लाते हुए कहने लगे कि हे महासती सीताजी ! हमारा रक्षण करो । (५०६)
स्वस्थं चक्रे तदुदकं ततः संस्पृश्य पाणिना ।
अचिन्त्याच्छील माहात्म्याल्लोके किं न जायते ॥१०॥
उसके बाद सीता ने पानी को हाथ से स्पर्श करके शांत किया । अचिंत्य । शील के माहात्म्य से जगत में क्या-क्या नही होता है ? (५१०)
तदाऽस्याः शील लीलाभिरनलं सलिली कृतम् । निरीक्ष्य देवा ननृतुर्ववृषुः कुसुमादि च ॥११॥
उस समय सीताजी के शील के माहात्म्य से अग्नि को पानी बना देखकर देवता नाचने लगे और पुष्प की वृष्टि करने लगे । (५११) ।
जहषुः स्वजनाः सर्वे पौरा जयजयारवैः ।। तुष्टु वुस्तां सती दिव्यो, नव्योऽजनि महोत्सवः ॥१२॥
सभी स्वजन खुश हुए नगर के लोग जय जयकार करते सति की स्तुति करने लगे । इस तरह दिव्य नया महोत्सव हुआ । (५१२)