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________________ (५३४) भवतोर्जननी क्वेति, पृष्टौ ताभ्यां च दर्शिता । गृहायाहू यमाना च सती दिव्यमयाचत् ॥४६४॥ तुम्हारी माता कहां है ? इस तरह राम लक्ष्मण के पूछने पर उन्होंने अपनी माता को बताया, उस समय सीता जी को घर में आने के लिए आमंत्रण दिया तब सती को न देखने की याचना की । (४६४) ततः स रवातिकां रामोऽङ्गार पूर्णामरीरचत । पुरुष द्वयदधी चायतां हस्तशतत्रयीम् . ॥४६५॥ . पश्यत्सु सर्वलोके षु, सुरासुखरादिषु । चमत्कारात्पुलकितेष्वित्यूचे सा कृतान्जली ।।४६६॥ . . . उस समय में रामचन्द्र जी ने अंगारों (आग) से भरी खाई बनाकर, जो पुरुष जितनी गहरी तथा तीन सौ हाथ लम्बी थी, उस समय में चमत्कार से राम खड़े हो. जाते हैं, जिससे देव, असुर और मनुष्य आदि सब लोग के समक्ष हाथ जोड़कर बह · सीता कहती है । (४६५-४६६). हहो भ्रातभानो ! जागरूको भवान् भुवि । पाणिग्रहणकालेऽपिं त्वमेव प्रतिभूरभूः ॥४६७॥ हे भाई ! सूर्य ! तुम पृथ्वी ऊपर हमेशा जागृत हो और मेरे विवाह के समय में भी तुम्हें ही साक्षी बनाया था । (४६७) ' जाग्रत्या वा स्वपत्या वा, मनोवाक्काय गोचरः । कदापि पतिभावों में राघवादपरे यदि ॥४६८॥ तदा देहमिदं दुष्टं, दह निर्वह कौशलम् ।। न पाप्मने ते स्त्रीहत्या दुष्टनिग्रहकारिणः ॥४६६॥ जागृत अथवा सोये हुए मन, वचन और काया के विषय में राम के बिना अन्य किसी को भी पति रूप में मैंने चिन्तन किया हो तो इस दुष्ट देह को जला डालना और अपनी कुशलता का निर्वाह करना, दुष्ट के निग्रह करने वाले तुझे स्त्री हत्या का पातक नहीं लगेगा । (४६८-४६६)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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