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________________ (५२८) अथानतप्राणतयोरूर्व दूरमतिकमे । असंख्येययोजनानामुभौस्वर्गों प्रतिष्ठितौ ॥४५५॥ आरणाच्युत नामानौ, सधामानौ मणीमयैः । विमार्योगविद ध्यानैरिवानन्दमहोमयैः ॥४५६ ॥युग्मम् ॥ अब आरण और अच्युत देवलोक का वर्णन करते हैं - आनत और प्राणत देवलोक के ऊपर असंख्य योजन जाने के बाद आरण और अच्युत नामक दो देवलोक रहे हैं, आनंद और तेज युक्त ध्यान से जैसे योगी शोभता है वैसे मणिमय विमान से तेजोमय ये दोनो देवलोक शोभायमान है । (४५५-४५६) . चत्वारः प्रतराः प्राग्वद्, द्वयोः साधारणा इह । प्रतिप्रतरमेकै कं , मध्य भागे तथेन्द्रकम् ॥४५७॥ पूर्ववत् दोनों देवलोक के सामान्य अर्थात दोनों देवलोक के बीच में चार प्रत्तर है। प्रत्येक प्रत्तर के मध्यभाग में एक-एक इन्द्रक विमान होता है।(४५७) पुष्पसंज्ञमलङ्कारं, चारणं चाच्युतं कमात्। एम्यश्चतुर्दिशं प्राग्वच्छङ्क्तयश्च प्रर्कीणकाः ॥४५८॥ इन्द्रक विमानों का क्रमशः नाम १-पुष्प,२-अलंकार,३-आरण ४-अच्युत है एवं चार दिशा में पूर्व के समान पंक्तिंगत और प्रकीर्णक विमान है। (४५८) चतुस्त्रिद्वये कसंयुक्ता, दशैतेषु कमादिह। प्रतिपडिक्त विमानोनि, प्रतरेषु चतुर्ध्वपि ॥४५६॥ .. चारों प्रतर के अन्दर प्रत्येक पंक्ति में क्रमशः, चौदह, तेरह बारह और ग्यारह विमान होते हैं। (४५६) अथाद्यप्रतरे पंक्तौ, पंक्तौ वृत्ता विमानकाः । चत्वारोऽन्ये पञ्च पञ्च षट्पञ्चाशत्यमेऽप्यमी ॥४६०॥ अब प्रथम प्रतर के पक्तिं में गोलविमान चार है और त्रिकोन चुतष्कोण विमान पांच-पांच है कुल मिलाकर छप्पन विमान होते है। (४६०) ' द्वितीयप्रतरे व्यत्राः, पञ्चान्ये द्विविधा अपि। चत्वारश्चत्वार एव, द्विपञ्चाशत्समेऽप्यमी॥४६१ ।।
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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