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दूसरे प्रतर में त्रिकोन विमान पांच है और शेष दोनों प्रतर के चार-चार विमान हैं कुल विमान बावन होते हैं। (४६१)
चत्वारश्चत्वार एव तृतीये त्रिविधा अपि ।
अष्टचत्वारिंशदेवं, पांक्तेयाः सर्वसंख्यया ॥४६२॥
तीसरे प्रतर में तीन प्रतर में तीन प्रकार के विमान चार-चार है । पंक्तिगत कुल मिला कर विमान अड़तालीस होते हैं। (४६२)
चतुर्थ प्रतरे वृत्तास्त्रयोऽन्ये द्विविधा अपि ।
चत्वारःस्युश्चतुश्चवारिशच सर्वसंख्यया ॥४६३॥
चौथे प्रतर में गोल विमान तीन है और शेष दोनों प्रकार के विमान चार-चार है कुल मिला कर चवालीस (४४) होते है। (४६३) ।
सर्वेऽत्रपतिवृत्ताच,चतुर्भिरिन्द्रकैः सह । चतुःषष्टिस्तथा पतित्रिकोणाचद्विसप्ततिः ॥४६४॥ अष्टषष्टिः पङ्क्ति चतुः कोणाः सर्वेशतद्वयम् । 'चतुर्युतं षण्णवतिश्चेह पुष्पांवकीर्णकाः।।४६५।। एवं शतानि त्रीण्यत्र, विमानाः सर्वसंख्यया । एष्वानत प्रणतवद्वर्णाघारोच्चतादिकम् ।।४६६ ॥
चारों प्रतर में पंक्तिगत विमानो में इन्द्रक विमान के साथ में गोल विमान चौसठ है और पंक्तिगत कुल विमान दो सौ चार होते हैं और पुष्पा वकीर्णक विमान छियानवे है।. इन दोनों देवलोक के कुल विमान तीन सौ है। इन देव लोक के विमान के वर्ण आधार, ऊंचाई आदि आनत, प्राणत स्वर्ग के समान समझना । (४६४-४६६)
अत्र दक्षिण दिग्भागे, आरणस्वर्ग वर्त्तिषु । नाकिनां स्थितिरूत्कर्षात् प्रतरेषुचतुष्वपि ॥४६७॥ सपादविंशतिः सार्द्धविंशतिश्च यथाक्रमम् । पादोनैकविंशतिश्रच, वार्डीना चैकविंशति ।।४६८॥