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________________ (५२४) मण परियारणं करेंति आरेण अच्चुयाओगमणा गमणं तु देव देवीणं मित्यादि पूर्व संग्रहणी गतप्रक्षेपगाथायास्तुसंवादो नदृश्यते" इति लघु संग्रणी वृत्तौ॥ मूल संग्रहणी की टीका में श्री हरिभद्र सूरि महाराज ने कहा है -अपरिगृहिता देवियाँ सहस्त्रार देवलोक तक जा सकती है तथा आचार्य भगवान श्री आर्य श्याम सूरि जी ने भी प्रज्ञापना सूत्र में कहा है कि - उसमें जो मन परिचारक देव होते हैं उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है कि 'मैं मन से अप्सरा के साथ में भोग करूं ।' उस समय उन देवों द्वारा मन से संकल्प की हुई वे देवियाँ वहीं उस देवलोक में जाकर जल्दी अपने मन में ऊँचे नीचे भावों को करती है अर्थात अनुपम काम विचारों द्वारा मन को आकुलित बना देती है । उस समय वह देव अप्सरा के साथ में मन द्वारा भोग का सेवन करता है । इस तरह से प्रज्ञापना के इस पाठ की नवीनता- विशेषता यह है कि उसमें सहस्रार देवलोक से ऊपर भी देवियों का गमनागमन स्वीकार किया है, परन्तुं वहां जाकर भी देवियां मानसिक कामसुख ही अनुभव करती हैं । अच्युत देवलोक से आगे देव देवियों का गमन नहीं होता है, इस तरह से पूर्व संग्रहणी गत प्रक्षेपगाथा के प्रति पादन का मेल नही मिलता है । इस तरह से लघु संग्रहणी की वृत्ति में कहा है। . .... प्रज्ञप्ता सर्वतिः स्तोका, देवा अप्रविचारकाः । स्युः संख्येय गुणास्तेभ्यश्चेतः सुरतसेविनः ॥४३४॥ तेभ्यः क्रमाच्छब्दरूपस्पर्श संभोगसेविनः । यथोत्तरमसंख्येयगुणा उक्ता जिनेश्वरैः ॥४३५॥ भोग की इच्छा-मैथुन वासना बिना के देवता सबसे कम अल्प होते हैं । उससे संख्यात गुण देव चित्त से भोग करने वाले होते हैं, उससे शब्द, रूप स्पर्श से संभोग सेवन करने वाले देव क्रमशः असंख्यात गुणा होते हैं, इस तरह श्री जिनेश्वर भगवन्त ने फरमाया है । (४३४-४३५) आद्यैस्त्रिभिः संहनैरुपेता गर्भजा नराः । उत्पद्यन्त एषमीभ्यश्चयुत्वाऽप्यनन्तरे भवे ॥४३६॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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