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________________ (५२३) उस समय वे देवियाँ भी सुन्दर आकर्षणदार शृंगार सजकर कामविधुर बनकर, दूर देश में रही अपने पति के पास में जाने के लिए असमर्थ पत्नी के समान अपने स्थान में ही रहकर चित्त को ऊँचे-नीचे विचार करती है अर्थात काम से आकुल-व्याकुल करती है । उस समय देव भी उस ही अवस्था में रहकर चित्त से उन देवियों का संकल्प करके चित्त को ऊँचे-नीचे विकार करते दूर रहने पर भी मंद पुरुष वेद की वेदना वाले इतने में ही भोग के समान ही वे शान्त हो जाते हैं । उससे तृप्त हो जाते हैं । (४२८-४३०). देव्योऽपि तास्तथा दूरादपि दिव्यानुभावतः । सर्वाङ्गषु परिणतैस्तुष्यन्ति शुक्र पुद्गलैः ॥४३१॥ वे देवियाँ भी दूर से ही दिव्य प्रभाव से सर्व अंग में परिणत हुए शुक्र पुद्गलो से तृप्त-शान्त हो जाती हैं । (४३.१) यत ऊर्ध्व सहस्रारान्न देवीनां गतागते । तत्रस्था एव तेनैते, भजन्ते भोगवैभवम् ॥४३२॥ क्योंकि सहस्रार देवलोक से ऊपर देवियों का गमनागमन-जाना आना नहीं होता, इससे वहां रहे ही भोग के वैभव का इसी तरह से अनुभव करते हैं । (४३२) यश्च तासा सान्तराणासंख्यैरपि योजनैः । . • शुक्र संचारोऽनुभावात्, स ह्यचिन्त्यः सुधा भुजाम् ॥४३३॥ ' असंख्य योजन दूर रही उन देवियों का देव द्वारा इसी तरह का शुक्र संचार उन देवों के प्रभाव से होता है, और देवों का प्रभाव अचिंत्य होता है । (४३३) _तथा चमूल संग्रहणी टीकाया हरिभद्र सूरि:-"देव्यः स्वल्वपरिगृहीताः सहस्रारं यावद्गच्छन्ति," तथा च भगवानार्यश्यामोऽपि प्रज्ञा पनायामाह - "तत्थ णं जे ते मण परियारगा देवा तेसिं इच्छामणे समुप्पजइ, इच्छामो णं अच्छराहि सद्धिं मणपरियारणं करेत्तए, तओ णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताजो अच्छराओ तत्थ गयाओचेव समाणीओ अणुताइ उच्चावयाइंमणाइपहारेमाणीओचिटुंति,तओणं ते देवा ताहिं अच्छराहिंसद्धिं
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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