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________________ (५२२) बीस सागरोपम के आयुष्य वाले देवों का देहमान तीन हाथ + २ अंश है और मध्यम् आयुष्य वाले देवों का देहमान उसके अनुसार समझ लेना चाहिये । (४२३) अष्टादशभिरेकोन विंशत्याऽब्दसहस्रकैः । विंशत्या च यथायोगममी आहारकाङ्गिणः ॥४२४॥ यहाँ के देवों के अनुक्रम से अठारह हजार, उन्नीस हजार और बीस हजार वर्ष में आहार की इच्छा होती है । (४२४) नवभिः सार्द्धनवभिर्मासैदशभिरेव च । उच्छ्वसन्ति यथायोगं स्वस्वस्थित्युनुसारतः ॥४२५॥ अपने-अपने आयुष्यनुसार नौ, साढ़े नौ और दस महीने में श्वासोश्वास लेते हैं । (४२५) रिरंसवस्त्वमी देवाः सौधर्म स्वर्गवासिनीः ।.. विचिन्तयन्ति चित्तेनानतस्वर्ग निवासिनः ॥४२६॥ . आनत स्वर्ग के देवों को भोग की ज़ब इच्छा होती है, उस समय चित्त से सौ धर्मवासी देवियों का चिन्तन करते हैं । (४२६) प्राणत स्वर्गदेवास्तु, विचिन्तयन्ति चेतसः । रिरंसया स्वभोगाहां, ईशानस्वर्गवासिनीः ॥४२७॥ प्राणत देवलोक के देव भोग की इच्छा से अपने योग्य ईशानं देवलोक वासी देवियों का चित्त से विचार करते हैं । (४२७) . देव्योऽपि ताः कृतस्फार शृंगारा मदनोद्धराः । विदेशस्थाः स्त्रिय इव कान्तमभ्येतुमक्षमाः ॥४२८॥ स्वस्थानस्था एव चित्तास्युच्यावचानि विप्रति । देवाअपि तथावस्थास्ताः संकल्प स्वचेतसा ॥४२६॥ उच्चावचानि चेतांसि, कुर्वन्तो दूरतोऽपि हि । सुरतादिव तृप्यन्ति, मन्दपुंवेद वेदनाः ॥४३०॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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