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________________ (५२१) उसमें दक्षिण दिशा में रहे आनत स्वर्ग सम्बन्धी प्रथम प्रतर में इन देवों का आयुष्य उत्कृष्ट से सवा अठारह सागरोपम है, दूसरे प्रतर में साढ़े अठारह सागरोपम है, तीसरे प्रतर में पौने उन्नीस सागरोपम है और चौथे प्रतर में उन्नीस सागरोपम का होता है और सर्वत्र जघन्य आयुष्य तो अठारह सागरोपम का होता है । (४१५-४१७) प्राणत स्वर्ग संबन्धिन्यथोतरदिशि स्थिते । प्रथम प्रतरे ज्येष्ठा, स्थितिः भवति नाकिनाम् ॥४१८॥ एकोनविंशतिस्तोयधयस्तुर्यलवाधिकाः। एकोनविंशतिः सार्द्धा, द्वितीय प्रतरेऽब्धयः ॥४१६॥ तृतीय प्रतरेऽब्धीनां पादोनां विंशतिः स्थितिः ।। तुर्ये च प्रतरे ज्येष्ठा, स्थितिविंशतिरब्धयः ॥४२०॥ - अब उत्तर दिशा में रहे प्राणत स्वर्ग सम्बन्धी प्रथम प्रतर में रहे देवताओं की उत्कृष्ट आयुष्य की स्थिति सवा उन्नीस सागरोपम है, दूसरे प्रतर में रहे देवताओं की उत्कृष्ट स्थिति साढ़े उन्नीस सागरोपम होती है, तीसरे प्रतर में रहे देवताओं की उत्कृष्ट स्थिति पौने बीस सागरोपम और चौथे प्रतर में रहे देवताओं की उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम की होती है । (४१८-४२०) सर्वत्रापि जघन्या तु, स्थितिरेकोनविंशतिः । पयोधयो देहमानमथ स्थित्यनुसारतः ॥४२१॥ चारों प्रतर के देवों की जघन्य स्थिति उन्नीस सागरोपम की होती है । इन देवों का देहमान स्थिति अनुसार है । (४२१) कराश्चत्वार एवाङ्गमष्टादशाब्धिजीविनाम । ते त्रयोऽशास्त्रयश्चैकोनविंशत्यब्धिजीविनाम् ॥४२२॥ - अठारह सागरों के आयुष्य वाले देवों का देहमान चार हाथ होता है और उन्नीस सागरोपम के आयुष्य वाले देवों का देहमान तीन हाथ + तीन अंश है । (४२२) . विंशत्यब्धिस्थितीनां तु देहमानं करास्त्रयः । द्विभागाढया मध्यमीयायुषां तदनुसारतः ॥४२३॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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