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जगत स्वभाव से ही ये विमान आकाश के अन्दर आलंबन रहित और आधार रहित रहते हैं और इन विमानों का वर्ण शुक्ल है प्रभा भी अत्यन्त देदीप्यमान है । (४१०)
योजनानां नव शतान्येषु प्रासादतुङ्गता । पृथ्वीपिण्डः शतान्यत्रः, त्रयोविशंतिरीरितः ॥४११॥
इस विमानों का पृथ्वीपिण्ड तेईस सौ योजन है और प्रासाद की ऊँचाई नौ सौ योजन होती है । (४११)
एषां पूर्वेदितानां च, विमानानां शिरोऽग्रगः । ध्वजस्तत्तद्वर्ण एव, स्यान्मरुच्चन्चलाञ्चलः ॥४१२॥
ये विमान और पूर्व कहे विमानो के शिखर ऊपर पवन से चंचल बनी हुई ध्वज भी विमान समान वर्ण वाली होती है । (४.१२)
अथ सर्वे शुक्लवर्णा, एवैतेऽनुत्तरावधि । किन्तूत्तरोत्तरोत्कृष्टवर्णा नभः प्रतिष्टिता; ॥४१३॥
अब अनुतर देवलोक तक सभी ही विमान शुक्ल वर्ण वाले ही होते हैं परन्तु वर्ण में उत्तरोत्तर उत्कृष्टता वाले होते हैं और आकाश में रहते हैं । (४१०)
उत्पन्नाः प्राग्वदेतेषु, देवाः सेवाकृतोऽर्हताम् । सुखानि भुञ्चते प्राज्यपुण्यप्राग्भारभारिणः ॥४१४॥
पहले के समान इस देवलोक में भी श्री अरिहंत भगवानों की सेवा करने वाले आत्मा देव रुप में उत्पन्न होते हैं और विशिष्ट पुण्य के समूह से शोभायमान वे सुख भोगते हैं । (४१४)
तत्र दक्षिणदिग्वर्त्तिन्यानतस्वर्गसंगते । प्रथम प्रतरेऽमीषां, स्थितिरूत्कर्षतो भवेत् ॥४१५॥ .. अष्टादश सपादा वै, द्वितीय प्रतरेऽब्धयः । सार्द्धा अष्टादश पादन्यूना एकोनविंशतिः ॥४१६॥ . तृतीय प्रतरे ते स्युस्तुर्ये चैकोनविंशतिः । सर्वत्रापि जघन्या तु, स्युरष्टादश वार्द्धयः ॥४१७॥