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दूसरे प्रतर की प्रत्येक पंक्ति में गोल विमान पाँच और दूसरे छ:-छ: होते हैं और कुल मिलाकर पंक्तिगत विमान अड़सठ होते हैं । (४०४)
त्रयंत्राः षट् पञ्च पञ्चान्ये चतुःषष्टिः समेऽप्यमी । तुर्ये त्रैधाः पञ्च पञ्च, षष्टिश्च सर्वसंख्ययाः ॥४०५॥
तीसरे प्रतर की प्रत्येक पंक्ति में त्रिकोन विमान छः है, और दूसरे पाँच-पाँच है कुल मिलाकर चौसठ विमान होते हैं । और चौथे प्रतर में तीनों के विमान पाँचपाँच होते हैं कुल मिलाकर साठ विमान होते हैं । (४०५)
चतुर्भिरिन्द्रकैर्युक्ताः, सर्वेऽत्र पंक्तिवृत्तकाः । अष्टाशीतिर्द्विनवतिः, पंतित्रयस्रा इहीदिताः ॥४०६॥ अष्टाशीतिः पंतिचतुरस्राः सर्वे च पंतिगाः। द्वे शते अष्टषष्टिश्च, शेषाः पुष्पावकीर्णकाः ॥४०७॥
इन्द्रक विमान सहित पंक्तिगत गोलाकार विमानों की कुल संख्या अट्ठायासी है और त्रिकोन विमान की संख्या ब्यानवे है जबकि पंक्तिगत चोरस विमानों की कुल संख्या अट्ठायासी है । पंक्तिगतं कुल मिलाकर विमान दो सौ अड़सठ (२६८) होते हैं और शेष पुष्पावकीर्णक विमान होते हैं । (४०६-४०७)
शतंद्वात्रिशदधिकं , विमानाः सर्वसंख्यया । स्वर्गद्वये संमुदिते, स्युश्चत्वारि शतानि ते ॥४०८॥ .
पुष्पावकीर्णक विमान एक सौ बत्तीस होते हैं, दोनों स्वर्ग के कुल मिलाकर चार सौ विमान होते हैं । (४०८)
आभाव्यत्वविभागस्तु; विमानानामिहास्ति न। यतोऽनयोरे क एव, द्वयोरपि सुरेश्वरः ॥४०६॥
इन दोनों देवलोक के विमानों का विभाग अलग-अलग नहीं है क्योंकि दोनों देवलोक का इन्द्र एक ही होता है । (४०६) - विहायसि निरालम्बा, निराधाराः स्थिताः अमी ।
जगतस्वभावतः शुक्रवर्णाश्च रूचिरप्रभाः ॥४१०॥