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इस सहस्रारेन्द्र को बाहर जाने का विमान 'विमल' नाम का है और उसको ‘बनाने के लिए विमल नाम का देव अधिकृत है । (३६८)
उर्ध्व चाघ सहस्रारादसंख्ययोजनोत्तरौ ।
आनतप्राणतौ स्वर्गों, दक्षिणोत्तरयोः स्थितौ ॥३६॥
अब आनत और प्राणत देवलोक का वर्णन करते हैं - सहस्रार देवलोक के ऊपर असंख्य योजन जाने के बाद दक्षिण और उत्तर दिशा में आनतं और प्राणत नामक दो देवलोक होते हैं । (३६६)
अनयो क वलयस्थयोर द्धदचन्द्रवत् । चत्वारः प्रतरास्तत्र, प्रति प्रतरामिन्द्रकम् ॥४००॥ .....
एक वलय में रहे दोनों देवलोक अर्ध, अर्ध चन्द्राकार रुप में है उसमें चार प्ररत होते हैं और प्रत्येक प्रतर में इन्द्रक विमान होते हैं । (४००) ....
महाशुक्र सहस्रारमानतं प्राणंतं क्रमात् । एभ्यश्च पन्तेयः प्राग्वत्पुष्पावकीर्णकास्तथा ॥४०१॥
और उनके नाम अनुक्रम से महाशुक्र सहस्रार आनत और प्राणत है । इस इन्द्रक विमान के चारों दिशा में पंक्तिगत विमान एवं विदिशा में पुष्पावकीर्णक विमान होते हैं । (४०१)
अष्टादश सप्तदश, षट्पञ्चाभ्यधिका दश । विमानान्ये कै क पङ्क्ति, प्रतरेषु चतुध्विह ॥४०२॥
चारों प्रतर के अन्दर प्रत्येक पंक्ति में क्रमशः अठारह, सत्तरह, सोलह और पंद्रह विमान होते हैं । (४०२)
प्रथम प्रतरे तत्र, प्रतिपङ्क्ति विमानकाः ।
वृत्तत्रयस्रचतुरस्राः, षट् षट् द्वासप्ततिः समे ॥४०३॥
प्रथम प्रतर की प्रत्येक पंक्ति में त्रिकोन, गोल और चोरस विमान छ:, छः है कुल मिलाकर बहत्तर विमान होते हैं । (४०३)
द्वितीय प्रतरे वृत्ताः पञ्च षट् षट् परे द्विधा । सर्वेष्टषष्टिः पङिक्तयास्तृतीयप्रतरे पुनः ॥४०४॥