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________________ ( ५२५) गर्भजेषु नरेष्वेवोत्पद्यन्ते नापरेष्यथ 1 अनुत्तरान्तदेवानामेवं ज्ञेये गतागती ॥४३७॥ आद्य तीन संहनन वाले गर्भज मनुष्य ही इस देवलोक में उत्पन्न होते है तथा यहां से च्यवन कर फिर अगले जन्म में भी गर्भज मनुष्य जन्म में उत्पन्न होते है दूसरे में जन्म नही लेते। अनुत्तर तक के देवों की इसी तरह से गति अगति होती है । (४३६-४३७). एकेन समयेनामी, च्यवन्त उद्भवन्ति च । संख्येया एव नासंख्या: संख्येयत्वान्नृणामिह ॥ ४३८ ॥ इस देवलोक में एक समय में संख्याता ही देवता उत्पन्न होते हैं और च्यवन करते हैं । असंख्यता नहीं करते, क्योंकि मनुष्य संख्यता ही होते हैं । (४३८) . अत्रोपत्ति च्यवनयोर्विरहः परमो भवेत् । वर्षादर्द्वागेवमासाः, संख्येयाः प्राणतेऽपि ते ॥४३६॥ अब्दादर्वागेव किंत्वानतव्यपेक्षयाधिकाः । अग्रे ऽप्येवं भावनीयं., बुधैवर्षशतादिषु ॥४४०॥ सम्पूर्णम भविष्यच्चे द्वर्ष वर्ष शतादिकम् । तत्तदेवाकथयिष्यन् सिद्धान्ते गणधारिणः ॥४४१॥ यहां आनत देवलोक में उतपत्ति और च्यवन का विरहकाल संख्याता महीने का है परन्तु वह वर्ष के अन्दर समझना चाहिये । प्राणत स्वर्ग में भी इस तरह ही संख्याता महीने है, परन्तु आनत देवलोक से कुछ अधिक जानना । इस प्रकार से देवलोक में सौ वर्ष आदि का जो अंतर है वह इस तरह से समझ लेना, यदि सम्पूर्ण सौ वर्ष - सौ वर्ष आदि होता तो गणधर भगवन्त ने इस तरह से ही सिद्धान्त में कहा होता । परन्तु ऐसा नही मिलता । (४३६-४४१ ) संख्येयानेव मासादीन् वर्षादेरविवक्षया । के चिन्मन्यन्ते ऽविशेषाद्वर्षादेरधिकानापि ॥ ४४२ ॥ बहुत महापुरुष वर्ष आदि की विवक्षा बिना संख्यात महीना मानते हैं और कुछ वर्ष से अधिक संख्यात महीनों को मानते हैं । (४४२)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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