SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 566
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ '५१३) लिए समर्थ है । सत्तरह सागरोपम के पूर्ण आयुष्य धारण करने वाला यह इन्द्र महाराज चालीस हजार विमान ऊपर शासन करने वाला होता है । (३६२-३६८) अस्य यान विमानं च, भवेत्प्रीतिमनोऽभिधम् । देवः प्रीतिमनाः ख्यातो भियुक्तस्तद्विकुर्वणे ॥३६६॥ उनके बाहर जाने का विमान प्रीतिमनास नाम का है और उसकी रचना करने में प्रीतिमना नाम का देव नियुक्त है । (३६६) महाशुक्रादथास्त्यूर्ध्व, सहस्रारः सुरालयः ।। योजनानामसंख्येयकोटाकोटिव्यतिक्र मे ॥३७०॥ अब सहस्रार देवलोक का वर्णन करने में आता है । महाशुक्र देवलोक में बराबर ऊपर असंख्य कोटा कोटि योजन जाने के बाद सहस्रार नामक देवलोक है। (३७०) चत्वारः प्रतरास्तत्र, प्रत्येकमिन्द्रकाञ्चिताः । . - ब्रह्म ब्रह्महितं ब्रह्मोत्तरं च लान्तकं क्रमात् ॥३७१॥ उस देवलोक के चार प्रतर हैं प्रत्येक प्रतर में इन्द्रक विमान हैं, उनके नाम अनुक्रम से ब्रह्म; ब्रह्महित, ब्रह्मोत्तर और लांतक है । (३७१) चतस्त्रः पङ्क्तयश्चेभ्यः, प्राग्वत्पुष्पावकीर्णकाः । द्वाविंशतिस्तथा चैकविशंतिर्विशतिःक्रमात् ॥३७२॥ एकोनविंशतिश्चेति, प्रतरेषु चतुर्ध्वपि । एकैक पतौ संख्यैयं, विमानानां भवेदिह ॥३७३॥ पहले के समान यहाँ पर भी प्रत्येक प्रतर में चार-चार पंक्तियाँ हैं और पुष्पा वकीर्णक विमान है, प्रत्येक पंक्ति की चार दिशा में प्रथम प्रतर में २२ विमान है दूसरी प्रतर में २१ विमान, तीसरी प्रतर में २० विमान और चौथे प्रतर में १६ विमान है । इस तरह से एक-एक पंक्ति में विमान की संख्या जानना । (३७२-३७३) तत्राद्यप्रतरे त्र्यस्त्रा, अष्टान्ये सप्त सप्त च । प्रति पतयथ सर्वेऽत्राष्टाशीतिः पङ्क्ति वर्तिनः ॥३७४॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy