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यहाँ उत्पत्ति और च्यवन का विरह उत्कृष्ट से ८० दिन और जघन्य से एक समय का होता है । (३५५)
पश्यन्ति देवा अत्रत्या, अवधिज्ञानचक्षुषा । पङ्कप्रभायास्तुर्यायाः, पृथ्व्या अघस्तलावधि ॥३५६॥
यहाँ के देव अवधिज्ञान रूपी चक्षु से पंकप्रभा नामक चौथी पृथ्वी के नीचे विभाग तक देख सकते हैं। (३५६)
अत्रत्यानां च देवानां दिव्यां देहधुति ननु । । । सोढुं शक्नोति सौधर्माधिपोऽपि न सुरेश्वरः ॥३५७॥
सौधर्मेन्द्र भी यहाँ के देवों के देह की दिव्यकान्ति को सहन करने के लिए समर्थ नहीं है । (३५७) . श्रुयते हि पुरा गङ्ग दत्तमत्रत्यनिर्जरम् ।
आगच्छन्तं परिज्ञाय, नन्तुं वीरजिनेश्वरम् ॥३५८॥ पूर्वागतो वज़पाणिस्तत्तेजः क्षन्तुमक्षमः । प्रश्रानापृच्छय संक्षेपात् संभ्रान्तः प्रणमन् ययौ ॥३५६॥
शास्त्र में सुना जाता है कि यहाँ के गंगदत्त नामक देव को जो श्री वीर जिनेश्वर को नमस्कार करने आ रहा है । ऐसा जानकर पहले आए सौ धर्मेन्द्र उसके तेज को सहन करने में असमर्थ बन गया था । फिर संक्षेप में प्रश्न पूछकर और नमस्कार करके वापिस चला गया । (३५८-३५६)
"एतचार्थ तो भगवती सूत्रे षोडशशतकषञ्चमोद्देशके ॥" । - (अर्थ से यह बात श्री भगवती सूत्र के सोलहवें शतक के पाँचवें उद्देश में कहा गया है ।) .. . .. चतुर्थे प्रतरेऽत्रापि, महाशुक्रावतंसकः ।।
सौधर्मवदशोकाद्यवतंसक चतुष्क युक् ॥३६०॥
इस देवलोक के चौथे प्रतर में सौधर्म देवलोक के समान महाशुक्रावतंसक नाम का मुख्य विमान है और उसके आसपास अशोकावतंसकादि चार विमान है । (३६०) ..