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(५१०) कङ्कणानां रणत्कारं, हारकाञ्चीकलध्वनिम् । । मणि मञ्जीरझंकारं, किङ्किणी निष्क्वणोल्वणम् ॥३५०॥ कामग्रहार्त्तिशमनमन्त्राक्षरमिवाद् भुतम् । शब्दं शृण्वन्त एवामी, तृप्यन्ति सुरतादिव ॥३५१॥
उस समय काम वासना के रुप ग्रह की पीड़ा की शान्ति के लिए मानो अद्भुत मंत्राक्षर न हो इस तरह देवांगानाओं का अद्भुत शृंगार रस से कोमल और विशाल सुन्दर गति अभिप्राय सहित का स्मित, कामगर्भित आवाज, विविध प्रकार की अन्योक्ति, वक्रोक्ति, व्यंगयोक्ति, सुन्दर वचन के समूह, हृदयगम गंध पद्म नये काव्यों की पद्धतियाँकिंकन्या के रणत्कार, हार और करधनी की मधुर ध्वनि, मणि के झांझर की झंकार और धुंघरूओं की आवाज सुनते ही संभोग के समान तृप्त हो जाता है । (३४८-३५१)
देव्योऽपिता दूरतोऽपि, वैक्रियैः शुक्रपुद्गलैः । तृप्यन्त्यङ्गे परिणतैस्ताग्दिव्यप्रभावतः ॥३५२॥
इस प्रकार से दिव्य प्रभाव से अपने शरीर में परिणाम हुए वैक्रिय शुक्र पुद्गलों से दूर रही देवियाँ भी तृप्त होती हैं । (३५२)
अर्द्धनाराचावसानचतुःसंहननाञ्चिताः । गर्भजा नरतिर्यंञ्चो, लभन्तेऽत्रामृताशिताम् ॥३५३ ।।
अर्ध नाराच तक के चार संघयण वाले गर्भज मनुष्य और तिर्यंच यहाँ देवरूप में उत्पन्न होते हैं। (३५३)
अस्माच्च्युत्वा नृतिरश्चोरेव यान्ति सुधाभुजः । च्यवमानोत्पद्यमानसंख्या त्वत्रापि पूर्ववत् ॥३५४॥ यहाँ से च्यवन कर देवता मनुष्य और तिर्यंच में ही उत्पन्न होते हैं च्यवन और उत्पत्ति की संख्या यहाँ भी पूर्व के समान समझ लेना । (३५४)
अत्रोत्पत्ति च्यवनयोर्विरहः परमो भवेत् । । अशीतिं दिवसानेकं, समयं च जघन्यतः ॥३५५।।