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चौथे प्रतर के देवों की उत्कृष्ट स्थिति सतरह सागरोपम की कही है । चारों प्रतर में जघन्य स्थिति चौदह सागरोपम कही है । (३४३)
कराः पञ्च देहमत्र चतुर्दशाविध जीविनाम् । कराश्चत्वार स्त्रयोऽशा, पञ्चदशाब्धिजीविनाम् ॥३४४॥ .
यहां रहे चौदह सागरोपम के आयुष्य वाले देवताओं के देह की ऊँचाई पाँच हाथ होती है और पन्द्रह सागरोपम के आयुष्य वाले देवों की देह की ऊँचाई चार हाथ और तीन अंश होती है । (३४४)
षोडशब्ध्यायुषां हस्तश्चत्वारोऽशद्वयान्विताः ।
एकांशाढयास्ते तु सप्तदशसागरजीविनाम् ॥३४५॥
सोलह सागरोपम के आयुष्य वाले देवों के देह की ऊँचाई चार हाथ और दो अंश होती है और सतरह सागरोपम के आयुष्य वाले देवों के देह की ऊँचाई चार हाथ
और एक अंश होती है । (३४५) . एकादश विभक्तैक करस्यांशा अमी इह ।
अहारोच्छ्वास कालस्तु, प्राग्वत्सागरसंख्यया ॥३४६॥ - ग्यारह विभाग के विभक्त हुए हाथ के यह अंश समझना, आहार और उच्छ्वास का काल पूर्व के समान सागरोपम की संख्या के अनुसार समझ लेना । (३४६) .. कामभोगाभिलाषे तु, तेषां संकेतिता इव ।
सौधर्म स्वर्ग देव्योऽत्रायान्ति स्वार्ता विचिन्तिताः ॥३४७॥
इन देवताओं को कामभोग की अभिलाषा होती है उस समय उनकी संकेतिता व्यक्ति के समान सौधर्म देवलोक की अपने योग्य देवियाँ चिन्तन करने मात्र से वहां आती हैं । (३४७)
अथासां दिव्य सुदृशां, श्रृङ्गाररसकोमलम् ।
गीतं स्फीतं च साकूतं, स्मितं ललित कूजितम् ॥३४८॥ • विविधान्योक्ति वक्रोक्ति व्यङ्गयवल्गुवचोभरम् ।
हृद्यग द्यपद्यनव्यभव्य काव्यादिपद्धतिम् ॥३४६॥