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________________ (५०८) एवं पङ्क्ति विमानानां महाशुक्रे शतत्रयम् । षण्णवत्यासमधिकं शेषाः पुष्पावकीर्णकाः ॥३३६॥ सहस्राण्येकोनचत्वारिंशदेव च षट्शती । चतुर्युतैव सर्वे च, चत्वारिंशत्सहस्र काः ॥३३८॥ इस तरह से महाशुक्र देवलोक में पंक्तिगत विमान तीन सौ छियानवे होते हैं और पुष्पा वकीर्णक विमान उनतालीस हजार छ: सौ चार (३६६०४) है और कुल मिलाकर चालीस हजार होते हैं । (३३७-३३८) आधारतो लान्तकवद्, द्विधाऽमी वर्णतः पुनः । शुक्लाः पीताश्चपूर्वेभ्यो वर्णाद्युत्कर्षशालिनः ॥३३६॥ देवलोक के नीचे आधारभूत घनवात आदि लान्तक देवलोकं के समान समझना । यहां के देव शुक्ल और पीले इस तरह दो वर्ण वाले होते हैं और पूर्व के देवों से श्रेष्ठ वर्णवाले होते हैं । (३३६) ..... पृथ्वीपिण्डः शतानीह, चतुर्विशतिरीरितः । योजनानां शतान्यष्टौ, प्रासादाः स्युः समुच्छ्रिताः ॥३४०॥ इस देवलोक का पृथ्वी पिंड चौबीस सौ योजन का है और प्रासाद आठ सौ योजना ऊँचा होता है । (३४०) प्रथमप्रतरे चात्र, देवानां परमास्थितिः । पादोनानि पञ्चदश, स्यु सागरोपमाण्यथ ॥३४१॥ द्वितीयप्रतरे पञ्चदश सार्द्धानि तान्यथ । तृतीय च सपादानि, षोडशैतानि निश्चितम् ॥३४२॥ यहां प्रथम प्रतर में देवों की उत्कृष्ट स्थिति पोने पंद्रह सागरोपम की है, दूसरे प्रतर के देवों को उत्कृष्ट स्थिति साढ़े पन्द्रह सागरोपम की है और तीसरे प्रतर के देवों की उत्कृष्ट स्थिति सवा सोलह सागरोपम की है । (३४१-३४२) चतुर्थे च सप्तदश, वार्द्धयः परमास्थितिः । सर्वेष्वपि जघन्या तु, चतुर्दश पयोधयः ॥३४३॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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