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. तथोक्तं महा निशीथ द्वितीयाध्ययने - "जेणं तित्थगरादीणं महती आसायणं कुजा से णं अज्झ वसायंपडुच्य जावणं अणंत संसारियत्तणं लभेजा,"यावच्छब्द मर्यादाया चात्र संख्याता असंख्याता अपि भवा लभ्यन्त इति ध्येयं ।
श्री महानिशीथ के द्वितीय अध्ययन में कहा है कि - जो तीर्थङ्कर आदि की महान् आशातना करता है, उस अध्यावसाय अनुसार अनंत संसार तक भी भ्रमण करता है । यहां 'यावत' मर्यादा के अर्थ में होने से यावत् शब्द से संख्यातअसंख्यात् जन्म भी घट सकते हैं ।
उत्सत्रभाषिणां ये चानन्तामेव कदाग्रहात् । भवानूचुरुपेक्ष्यं तत्तेषां वातूलचेष्टितम ॥३२६॥ :
जो लोग कदाग्रह से उत्सूत्र भाषी के अनंत संसार ही कहते हैं वह उनका पागलपन है और वह उपेक्षा करने जैसा है । (३२६)
अतः परं किलिबषिका जातीयानामसंभवः । यथाऽऽभियोगिकादीनामच्युतस्वर्गतः परम् ॥३२७॥
इस देवलोक से आगे किल्बिषिक देव नहीं होते हैं । जिस तरह से अच्युत देवलोक से आगे आभियोगिक देव नहीं होते उसी तरह वहां भी वे नहीं होते । (३२६)
अथोर्ध्वं लान्तकस्वर्गात्समपदं समानदिक्। . . योजनानामसंख्येयकोटाकोटिव्यतिकमे ॥३२८॥ अस्ति स्वर्गो महाशुक्रः, संपूर्ण चन्द्र संस्थितः । चत्वारः प्रतरास्तत्र, प्रतिप्रतरमिन्द्रकम् ॥३२६॥
अब महाशुक्र देव लोक का वर्णन करते हैं - लान्तक स्वर्ग से बराबर ऊपर समान दिशा में असंख्यक कोटा कोटि योजन जाने के बाद सम्पूर्ण चन्द्राकार से महाशुक्र नामक देवलोक है और उसमें चार प्रतर है । प्रत्येक प्रतर में एक-एक इन्द्रक विमान होता है । (३२८-३२६)
आभङ्करं गृद्धिसंज्ञं केतुश्च गरुलाभिधम् । चतस्रः पतयस्त्वेभ्यः, प्राग्वत्पुष्पावकीर्णकाः ॥३३०॥