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द्रागेष क्रियते स्वामिन् ! श्रुत्वेति शिष्य भाषितम् । मिथ्याविपर्यस्तमतिरिति चेतस्यचिन्तयत् ॥३०३॥ . प्रत्यक्षं क्रियमाणोंऽयमकृतो यन्न भुज्यते । क्रियमाणं कृतमिति, तत्किमहान्तिमो जिनः ॥३०॥ ध्यात्वेति सर्वानाहूय, शिष्यानेषोऽत्रब्रवीदिति । कृतमेण कृतं वस्तु, क्रियमाणं न तत्तथा ॥३०५॥ क्रियमाणं कृत किंचिन चेदाधक्षणादिषु । सर्वमन्त्यक्षणे तर्हि, तत्कर्तुं शक्यते कथम् ? ॥३०६॥ ... देशतः कृतमेवेति, क्रियमाणं क्षणे क्षणे । .... जीर्यमाणं जीर्णमेवं, चलच्चलितमेव च ॥३०७॥
शिष्य जब संथारा कर रहे थे उस समय अधिक पीड़ा के कारण ज़माली ने शिष्यों को पूछा - संथारा तैयार हो गया या होता है ? किया या करवाया ? तब शिष्यों ने कहा - 'हे गुरुदेव ! संथारा अभी ही किया है । इस तरह से शिष्य कथित सुनकर मिथ्यात्व के कारण विपरीत बुद्धि से उसने विचार किया कि प्रत्यक्ष रुप में किया जाता (होता) है यह संथारा (अकृत) है इसमें उसका उपयोग नहीं किया जाता है फिर भी किया जाता है । और वह करना इस तरह से श्री अन्तिम जिनेश्वर क्यों कहते होगे? इस तरह चिन्तन कर सभी शिष्यों को बुलाकर उनको कहा - सम्पूर्ण रुप में की हुई वस्तु को ही की हुई कहना चाहिए । करते होते वस्तु को उस तरह नहीं करना चाहिए । उस समय उनके शिष्यों ने सामने प्रश्न किया कि - प्रथमादि क्षणों में होती क्रिया यदि थोड़ी भी देश से की हुई नहीं कहे तो अन्तिम क्षण में पूर्ण किस तरह से कह सकते हैं? सारा हो गया इस तरह किस तरह कह सकते हैं? क्षण-क्षण में होता देश से होता ही है पूर्ण होते वस्तुत जैसे जीर्ण कहलाती है । चलती हुई वस्तु को जिस तरह चलित कहलाता है उसी तरह कार्य प्रारम्भ करने से, वह कार्य हुआ ऐसा व्यवहार से कहा जाता है । (३०२-३०७)
इत्यादि युक्तिभिः शिष्यै बोधि तोऽपि कदाग्रही। . कैश्चिद्धर्माथिभिस्त्यक्तः, कैश्चित्स एव चादूतः ॥३०८॥