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(५०१)
श्रुत्वोपदेशं संविनोऽनुज्ञाप्य पितरौ व्रतम् । जग्राह पञ्चभिः पुंसा, शतैः सह महामहैः ॥२६७॥
वीर परमात्मा का उपदेश सुनकर वैराग्ययुक्त बनकर माता-पिता की आज्ञा लेकर पांच सौ पुरुषों के साथ महा महोत्सव पूर्वक उसने दीक्षा स्वीकार की । (२६७)
अधीतैकादशाङ्गीकस्तयैवार्ह दनुज्ञयाः ।
सेव्यः साधुपंञ्चशत्याः चकारानेकधातप ।।२६८॥
पांच सौ साधुओं से युक्त वह जमाली ग्यारह अंग (शास्त्र) पढ़कर परमात्मा की अनुज्ञापूर्वक अनेक प्रकार से तपस्या करता था । (२६८)
पप्रच्छ चैकदाऽर्हन्तं, विजिहीर्षु पृथग्जिनात् । तूष्णीं तस्थौ प्रभुरपि, जानस्तद्भविदेशसम् ॥२६६॥
एक दिन उस जमाली ने.श्री जिनेश्वर भगवान से अलग विचरणे की इच्छा होने से भगवान के पास अनुज्ञा मांगी उस समय भगवान ने उसका विपरीत भाव देखकर मौन धारण कर लिया । . . . . अननुज्ञात एवैष, उपेक्ष्य जगदीश्वरम् ।
विहरन् सहित: शिष्यैः, श्रावस्ती नगरी ययौ ॥३००।
भगवान की अनुज्ञा नहीं होने पर भी उपेक्षा करके वह अपने शिष्यों के साथ में विचरण करते श्रावस्ती नगरी में गया । (३००)
तत्र तस्यान्यदा प्रान्ताद्यशनेन ज्वरोऽभवत् । शिष्यान्शिशयिषुःसंस्तारकक्लृप्त्यै समादिशत् ।।३०१॥
वहां एक दिन उसको रूखा सूखा भोजन करने के कारण बुखार आ गया, और उस समय सोने की इच्छा से उसने शिष्यों को संथारा करने के लिए आदेश दिया । (३०१)
तमास्तरन्ति ते यावत्तावदेषोऽतिपीडितः । ऊचे संस्तास्को हन्त, कृतोऽथ क्रियतेऽथवा? ।।३०२॥